जिरह पढ़ें, आप अपनी लिपि में (Read JIRAH in your own script)

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जिरह करने की कोई उम्र नहीं होती। पर यह सच है कि जिरह करने से पैदा हुई बातों की उम्र बेहद लंबी होती है। इसलिए इस ब्लॉग पर आपका स्वागत है। आइए,शुरू करें जिरह।
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Wednesday, March 24, 2010

पत्नी की गैरमौजूदगी और मेरा ओछापन

अनिता, अनुनय और मान्या के बिना शुरू के दो दिन तो मैंने खूब चैन से गुजारे। लगा कि 17 मार्च की खुशियां बरकरार हैं। अगर स्वर्ग होता होगा तो शायद उसका सुख यही है। पर तीसरे दिन से ही मेरा भ्रम टूटने लगा। मुझे मेरा घर अचानक पराया लगने लगा। दफ्तर से लौटता तो यहां का सूनापन मुझे काटने को दौड़ता। डर कर मैं अपने कमरे में मैं सिकुड़ जाता। समझ नहीं पा रहा था कि यह प्यारा सा घर मुझे मकान की तरह क्यों लगने लगा? मेरा स्वर्ग अचानक नर्क में कैसे तब्दील हो गया?

जो लोग पत्रकारिता के पेशे में हैं उनके घर लौटने का वक्त बेहद अटपटा होता है। मेरा भी है। देर रात लौटता था, अनिता और बच्चे तब तक सो चुके होते थे। मैं बस चुपचाप उनके कमरे में झांक आता। उन्हें सोया देख (कभी कभार जगा पाकर) बेहद सुकून मिलता। इस सुकून का अहसास तब कभी नहीं हुआ या कहें कि मेरी कमजोर संवेदनाओं ने उन्हें कभी महसूस नहीं किया। इस दफे उनकी अनुपस्थिति में वह अंतर मुझे पता चला। रात घर लौटने के बाद जब मुझे उनका कमरा खाली दिखता तो वह खालीपन मेरे भीतर भी बजने लगता। वाकई मैं बेचैन हो जाता। घर में उन तीनों का न होना मुझे बेहद खटकने लगा।

अनिता के जाने के बाद शुरू की दो रातें मैंने या तो टीवी देखते हुए बिताईं या कुछ पढ़ते हुए। अगली सुबह मैं काफी देर से जगा। देर से जगने का कोई अफसोस नहीं था क्योंकि मैं तो अपनी आजादी में डूबा था। पर धीरे-धीरे मुझे बात समझ में आई कि जिसे मैं आजादी समझ रहा था वह वाकई मेरे सिस्टम का डैमेज हो जाना था। ठीक वैसे ही जैसे जब शरीर का कोई महत्वपूर्ण हिस्सा साथ छोड़ने लगता है तो आपका शरीर आपके वश में नहीं होता। वह तेजी से काम करता है, पर कब कौन सा काम वह करे इस पर न तो आपका वश चलता है न ही आपको अहसास होता है कि वह आपके मुताबिक नहीं चल रहा।

घर में पत्नी और बच्चों के होने से कितना फर्क पड़ जाता है माहौल में। कभी आप बच्चों से खेलते हैं, कभी समझाते हैं और कभी उन्हें डांटते भी हैं। ठीक उसी तरह पत्नी से तमाम तरह की बातें आप शेयर करते हैं - कभी दफ्तर का तनाव, तो कभी किसी सब्जेक्ट पर विचार-विमर्श। और इन स्थितियों के बाद आपका मुकम्मल चरित्र बन कर उभरता है। आप अपने व्यक्तित्व के अधूरेपन को पत्नी और बच्चों के साथ होकर ही पूरा कर पाते हैं।

अभी ध्यान जा रहा है कि इतने वर्षों से मैंने तो अनिता से खुद को शेयर किया। अक्सर अपनी बातें उनसे कीं। पर क्या कभी अनिता की बातें मैंने सुनीं? पत्रकारिता या समाज को लेकर जो सवाल मुझे मथते हैं, क्या वह अनिता को नहीं मथते होंगे? मैं कैसे भूल गया कि उसके भीतर भी पत्रकार बनने की ख्वाहिश थी। इकोनॉमिक्स में एमए और बैचलर ऑफ जर्नलिजम कर लेने के बाद उसे भी अपने करियर की चिंता थी। पर शादी के बाद उसने पूरी दृढ़ता से कहा था कि मैं घर संभालूंगी। आखिर उसने अपने करियर को तिलांजलि दी तो किसके लिए? जाहिर है इस परिवार के लिए। मुझे मुखिया की तरह स्वीकार किया - क्या यह उसकी कमजोरी थी? आज मेरा मानना है कि यह उसकी दृढ़ता थी। दृढ़ता इस अर्थ में कि जो हल्के होते हैं वही उड़ते हैं, जो अपनी धुन के पक्के होते हैं उन्हें अपने फैसलों पर टिके रहना आता है।

और ऐसी नायाब साथी से मैंने कभी जानने की कोशिश नहीं की उसके भीतर की हलचल। उफ्, यह मेरा कौन सा ओछा रूप है? मेरा यह रूप मुझ से छुपा कैसे रहा? मेरे इस ओछेपन को अनिता कितने सहज भाव से स्वीकार करती रही। मैं समय-समय पर उसपर गरजता रहा और वह लगातार त्याग और समर्पण के साथ मुझ पर बरसती रही। क्या त्याग करना सिर्फ औरतों के हिस्से है? यह काम मर्द प्रकृति में क्यों नहीं?

मेरी छोटी-छोटी जरूरतों का ध्यान अनिता कुछ वैसे ही रखती रही है जैसे अपने बच्चों का। इन सात दिनों ने मुझे जीवन के कई पहलुओं से रू-ब-रू कराया है। मेरे ही छुपे हुए कई रूपों को मेरे सामने रखा है। अनिता के बारे में सोचने की नई दृष्टि दी है। मेरे भीतर बसे बेशर्म मर्द को शर्मिंदा किया है। अब तो बस इंतजार है कि अनिता लौटे तो उसे बताऊं कि मैं तुम्हारा पति नहीं बल्कि तुम्हारा साथी हूं। ऐसा साथी जो सिर्फ 'मैं' की भाषा नहीं बोलेगा, वह 'हम' की भाषा बोलेगा। हां अनिता, यह घर मेरा नहीं, हमारा है। हमारा यह घर तुम्हारा बेसब्री से इंतजार कर रहा है। रियली आई लव यू।

Thursday, March 18, 2010

खुशियां हैं बरकरार

सुबह 5 बजे सोने गया और अब 10:30 बजे सो कर उठा हूं। कोई शोरगुल नहीं। खूब गहरी नींद आई। सोकर उठा तो मोबाइल में 18 मिस्ड कॉल दिखी। चार बार मेमसाब (मेरी श्रीमती जी) ने फोन किया था। बाकि 14 साथी-संगतियों की कॉल थी। सोचा था इन सात दिनों में पुराने बचे कई काम निबटा लूंगा। कुछ लेख लिखने थे, जिनके तगादे काफी तेज हो गए हैं। बातें जेहन में हैं पर मन आसमां में उड़ रहा है। कैसे लिखूं? लिखने की इच्छा नहीं हो रही। बस इन दिनों वही कर रहा हूं जो इच्छा होती है। लेख लिखने की इच्छा नहीं है तो लिखूंगा भी नहीं। बाकी दिनों में तो यह सोच कर कर लिया करता था कि चलो करियर के रास्ते में कहीं ये चीजें सपोर्टिव होती हैं। पर इन दिनों जब सोचता हूं करियर की बात तो मन से फूटती है आवाज - यार काहे को लफड़ा मोल ले रहा है। चल मस्ती कर। बस फिर क्या? हंसी-ठिठोली। कभी टीवी पर खबरें देख लीं तो कभी चैनल बदल-बदल कर फिल्में। ज्यादा इच्छा हुई तो मनपसंद सीडी निकाली, गाने सुन लिए या फिल्म देख ली।

Wednesday, March 17, 2010

आजादी की पहली सुबह

पिछले कई दिनों से इस सत्रह मार्च का मैं बेसब्री से इंतजार कर रहा था। रोज जीटॉक के स्टेटस मेसेज में इस दिन के इंतजार में मेसेज बदल रहा था। संगी-साथी पूछ रहे थे कि क्या मामला है। मैं क्या बताता उन्हें। डरा मैं भी था कि श्रीमती जी ने कहीं टिकट कैंसल करा दिया तो? बहरहाल, श्रीमती जी सोलह मार्च की शाम मायके गईं। चैन के सात दिन गुजारूंगा। जब से दिल्ली आया। घर में अकेला रहने को तरस गया। इस बार जब से टिकट कटा, दिन काटने मुश्किल हो गए थे। सत्रह तारीख का बेसब्री से इंतजार करता रहा। सोलह की शाम उन्हें ट्रेन में बैठा, दफ्तर आया। वीकली ऑफ होने के बावजूद किसी और दिन दफ्तर आना थकान पैदा कर देता था। पर सोलह को ऐसा कुछ नहीं हुआ। बिल्कुल तरोताजा रहा। घर आया और देर तक इस खुशी को महसूस करता रहा। इन सात दिनों में कोशिश होगी कि अपने इन खूबसूरत दिनों का ब्यौरा यहां पेश करता रहूं। फिलहाल तो ब्लॉगिंग की भी इच्छा नहीं हो रही है। यह तो पहले भी करता रहा। इसके लिए कोई रोक-टोक नहीं थी। हां चलता हूं टीवी देखूंगा। आज मुझे कौन रोकेगा भला। :-)