जिरह पढ़ें, आप अपनी लिपि में (Read JIRAH in your own script)

Hindi Roman(Eng) Gujarati Bangla Oriya Gurmukhi Telugu Tamil Kannada Malayalam

 
जिरह करने की कोई उम्र नहीं होती। पर यह सच है कि जिरह करने से पैदा हुई बातों की उम्र बेहद लंबी होती है। इसलिए इस ब्लॉग पर आपका स्वागत है। आइए,शुरू करें जिरह।
'जिरह' की किसी पोस्ट पर कमेंट करने के लिए यहां रोमन में लिखें अपनी बात। स्पेसबार दबाते ही वह देवनागरी लिपि में तब्दील होती दिखेगी।

Wednesday, February 27, 2008

शरीफ़ शहरी की शान

शहरी होना बड़ी बात नहीं, शहरी का शरीफ़ होना बड़ी बात है। आप सोच रहे होंगे कि यह कैसी बेतुकी बात कर दी मैंने। शहरी और शरीफ़ शहरी में कोई अंतर होता है क्या? यक़ीनन, अंतर होता है और बहुत ही गंभीर और गहरा अंतर होता है। रूप और बनावट में दोनों दिखते एक से हैं पर शरीफ़ शहरी बड़ी शार्प चीज़ होता है। वह इतनी तेज़ छुरी होता है कि आपकी गरदन काट ले जाए और आपको दर्द तक का अहसास न होने दे। इसे आप आसानी से ऐसे समझें कि यह शरीफ़ शहरी की बातों का जादू होता है कि आप अपनी गरदान बार-बार और सहर्ष उसके सामने प्रस्तुत करते हैं कि ले भाई, काट ले जा मेरी गरदन।

ख़ैर। चलिए, आज आपको थोड़ा विस्तार से बतलाता हूं कि क्या अंतर है इन दोनों कैटिगरी में। शहर में रहनेवाले शहरी कहलाते हैं। लेकिन सच है कि शहरी होना संक्रमणकाल से गुज़रने जैसा होता है। यानी, इस दौर में आपके भीतर गांव या क़स्बे की सादगी और वहां का भोलापन ज़िंदा होता है। आप चाहते हैं कि आपकी सादगी पर महानगर की रंगीनी चढ़े। इसके लिए आप तमाम मशक्कत करते हैं। बेवजह भिंगाकर मारा गया जूता हो या फिर हो चांदी का; आप दोनों को बर्दाश्त करते हुए कंठलंगोट लगा दांत निपोरकर खी-खी करते नज़र आते हैं। पर कंठलंगोट का असली इस्तेमाल आपको तब सूझता है, जब मारे गए जूते से आपके चेहरे पर पसीने चुहचुहा रहे हों। कहने का मतलब यह कि तमाम तरह के दिखावे के बाद भी आपके भीतर गांव का वह बालक छुपा बैठा होता है जो पूरी सहजता से अपने आस्तीन से अपनी नाक पोंछता था।

ऐसी कई-कई रासायनिक प्रक्रियाओं से गुज़र कर ही आप शरीफ़ शहरी होने का ठप्पा अपने ऊपर लगवा पाते हैं। इसलिए कहता हूं कि शरीफ़ शहरी बनना यक़ीनन बड़े धैर्य का काम है। वह इतना आसान नहीं कि आज आपने सोच लिया और कल से आप शरीफ़ शहरी बन गये। जो भी सज्जन फिलहाल इस टिप्पणी को पढ़ रहे हैं, उनके बारे में मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि वे शहरी तो हैं पर शरीफ़ शहरी नहीं। क्योंकि शरीफ़ शहरी पढ़ने के रोग से बिल्कुल मुक्त होता है। वह सिर्फ़ पट्टी पढ़ाना जानता है। वह किसी भी वक़्त, किसी के भी ख़िलाफ़, किसी को कोई भी पट्टी बड़ी आसानी से पढ़ा सकता है।

शहरी और शरीफ़ शहरी का एक मोटा फर्क़ आप इस रूप में समझ सकते हैं कि अधिकतर शहरी किसी न किसी स्टॉप पर बस का इंतज़ार करता हुआ दिख जाता है। महीने के अंत में उसके घर में क्लेश थोड़ा बढ़ जाता है। किसी तरह अपनी इज़्जत बचाए रखने की कोशिश में उसके चलने, उठने-बैठने का अंदाज़ उस तिलचट्टे की तरह हो जाता है, जिसपर कई टन यातनाओं का दबाव हो और तिसपर रेंगने की बेपनाह मजबूरी।

जबकि शरीफ़ शहरी के पास खूब पैसा होता है, गाड़ियां होती हैं, शोहरत होती है। इज़्जत तो वह इस क्रम में खरीद ही लेता है, खरीदने से न मिले तो वह इज़्जत लूटने से गुरेज़ भी नहीं करता। वह अपनी धुन का पक्का होता है। बड़ी से बड़ी कुर्बानियां देने को वह तैयार रहता है। मसलन, ज़मीन खरीदने की धुन हो या मकान। वह उसे हर कीमत पर पूरा कर ही लेता है, भले ही इस क्रम में वह अपनी ज़मीन से उखड़ जाए या उसका बसा-बसाया घर उजड़ जाए।
शरीफ़ शहरी की एक बड़ी खासियत यह होती है कि वह सबकी "हां" में "हां" मिलाता है। राग दरबारी पर उसका एकाधिकार होता है। गरीब की जोरू मजबूरी में सबकी भौजी हो जाती है, पर शरीफ़ शहरी जानता है कि इस भौजी से कब, कहां और कैसे मिलना है। मुहावरों की ज़बान में बात की जाए तो शरीफ़ शहरी के कई-कई मौसेरे भाई होते हैं। आपकी ज़रूरत के वक़्त वह बड़े इतमीनान से नौ दो ग्यारह हो जाता है। लेकिन कभी उसे आपकी ज़रूरत पड़े तो वह बारह दस बाइस की स्पीड से आपके पास दौड़ा चला आएगा। यानी अपना काम निकालने के लिए वह हर तरह का नौ छौ करने को तैयार रहता है। साथ ही आपके बन रहे काम को तीन तेरह करने में उसे दो मिनट भी नहीं लगते। महानगरों में शरीफ़ शहरी बनने का फैशन अपने पूरे उफान पर है। शराफ़त का यह किटाणु अब गांवों और कस्बों में भी अपनी ज़मीन तलाशने लगा है। तो तय करें आप कि आप शहरी बनना पसंद करेंगे या शरीफ़ शहरी।

अंतर

मैं

तुम्हारे लिए
उपमाएं चुनता हूं
शब्द ढूंढ़ता हूं
और
अपनी तमाम खुशी
तुम्हारे नाम करता हूं

पर तुम
मेरे लिए पेश करती हो
सिर्फ कुंठा
हताशा
निराशा
और भटकाव।

Sunday, February 24, 2008

महाभिनिष्क्रमण के बाद

सब कहते हैं

और मैं भी मानता हूं
बहुत बड़े संन्यासी थे तुम
राजा पिता की सारी जायदाद छोड़कर
जंगल-जंगल भटकते रहे
सत्य की तलाश में।

इसके पीछे वजह यह भी रही
कि बचपन में
तुम्हारी हर जरूरत पूरी होती रही
तुम्हारे घर-आंगन में
दूध-दही की नदी बही।

अगर तुम किसी फुटपाथ पर
पैदा होते
तो यकीन मानो
तुम्हारी पहली ज़रूरत
पेट की होती
शायद, सच की तलाश के लिए
सोच भी नहीं पाते तुम
डरे हुए जानवर की तरह
दबाये रखते अपनी दुम।

चूंकि तुम्हारा उदर भरता रहा
इसलिए तुमने जाना
कि लोभ दुख का कारण है
कभी एक शाम
भूखे रहना तुम्हारी मजबूरी बन जाए
और दिहाड़ी मजदूर की समस्या
तुम्हारी समस्या बन जाए
तो फिर देखना
ये सारे आदर्श हवा हो जाएंगे।

दरअसल,
दुख के और भी कई कारण हैं
जिनसे तुम्हारा वास्ता नहीं पड़ा
तुम्हें नहीं मालूम
कि जब
दरवाजे के कब्जे की कील
उखड़ी पड़ी हो
तो घर की तिमारदारी
है कितनी जरूरी
कि शहर में
लंपटों की टोली ने
रोटी पर कब्जा किया हुआ है...
.......... ।
और भी कई-कई तनाव हैं
कि शहर में हर तरफ
खतरनाक उदबिलाव हैं।

मौसम का मिजाज
फिर उखड़ा है।
शहर पाले का शिकार हुआ है
और हर आदमी ठिठुर रहा है।

भ्रूण का वक्तव्य

मां,
तुम ख़ुद स्त्री हो
इसलिए जानती हो
इस कटखने समाज में
पल-बढ़ रही स्त्री का दर्द।

चूंकि इस वक्त मैं
तुम्हारे भीतर पल रही हूं
इसलिए जान भी रही हूं
समाज के इस कड़वे स्वाद को
और आज
तुम्हारी उस हताशा को भी
मैंने महसूसा
जब तुम्हें पता चला
कि तुम्हारे भीतर पलता भ्रूण
स्त्रीलिंगी है।

ओ मां,
मैं जानती हूं
कि घर की माली स्थिति
खराब है
और मेरे लिए दहेज की चिंता,
समाज के बिगड़ैलों से
मेरी हिफाजत का तनाव...
से घबराकर तुम
मुझे जन्म देना नहीं चाहती

लेकिन मां,
शायद यह
तुम्हें नहीं पता होगा
कि मैं
तुम्हारे अंतरंग क्षणों की साक्षी
बन चुकी हूं
तुम मेरे उस दर्द को भी
नहीं जान सकती
जब तुमने पिता से कहा
कि तुम्हारे गर्भ में
लड़की है और उसे तुम जन्म...

लेकिन मां,
इन सबके बावजूद
मुझे अपनी कोख से जन्म दो न!

Friday, February 8, 2008

मां को समर्पित पांच कविताएं

ये मेरी मां है। शैलप्रिया। 1 दिसंबर 1994 की रात दिल्ली में ही कैंसर से लड़ते हुए मां की मौत हुई थी। उस वक़्त मैं रांची में था। पापा, भइया और छोटी बहन - तीनों मां के पास थे। मैं रांची में अपनी बूढ़ी दादी के पास उनकी देखभाल कर रहा था। हम चारों - पापा (विद्याभूषण), पराग भइया (प्रियदर्शन) और छोटी बहन रेमी (अनामिका) - के अलावा सिर्फ़ डॉक्टरों को ही पता था कि मां को कैंसर ने जकड़ रखा है। नवंबर 94 के आखिरी सप्ताह में आकाशवाणी (रांची) से कविताओं की रिकॉर्डिंग के लिए मुझे अनुबंध पत्र मिला। ये कविताएं उसी दौरान लिखी गयी थीं। संभवतः इनका प्रसारण 9 दिसंबर को होना था। पर मां की मौत के बाद उनके जन्मदिन (11 दिसंबर) को इनका प्रसारण हुआ। मां की कविताओं के दो संकलन 'अपने लिए' और 'चांदनी आग है' उनके जीवन काल में ही आ चुके थे। मौत के बाद तीन किताबें और आईं - घर की तलाश में यात्रा, जो अनकहा रहा और शेष है अवशेष । इसी बीच प्रसंग का 'शैलप्रिया स्मृति अंक' भी आ चुका था।
....................................................................

परिवेश : एक
----------------

ओ मां,
तुम्हें याद होगा
कि बादलों की गड़गड़ाहट से घबराकर मैं
हमेशा सिमट जाया करता था
तुम्हारी गोद में।
और यहीं सिमटे हुए
बहुत बार
कई-कई लड़ाइयां लड़ी हैं मैंने
और कई बार पीट चुका हूं
उस राक्षस को भी
जो तुम्हारी कहानियों की परियों को
सताया करता था।

संभव है,
तुम्हें याद न हो
पर मैंने तुम्हें बताया था
कि एक रात मैं अचानक
कृष्ण बन गया
और मेरे हाथों
कंस की हत्या हो गयी।

सचमुच मां,
अब समझता हूं
वह तुम्हारी गोद का जादू था
कि मैं निःशंक होकर
बैठे-बैठे लड़ लिया करता था
अपनी तमाम काल्पिनक दुःश्चिंताओं से
अपने को तमाम लोककथाओं का
नायक समझता हुआ
धीरे-धीरे बड़ा होता गया
तुम्हारी कहानियों के नायकों के
सारे पोल खुलते गये
उनके खल पात्रों को
जीवन में कई बार देखा।

हां मां,
उम्र की इस यात्रा से
गुज़रते हुए
चीज़ों को बहुत क़रीब से देखा है
बातें बहुत साफ हुई हैं
अब मैं
अपने बच्चों को
तुम्हारी कहानी सुनाता हूं
कि कैसे पैसे के अभाव में तुम
घुलती रही ताउम्र
इस जंगलतंत्र में
विवश हुए लोग हैं
इन वर्षों में
बहुत जटिल होती गयी है ज़िंदगी
समूचे मानदंड बदल चुके हैं
अमन और शांति
दूर के ढोल हैं
नेताओं के बोल हैं
आदमी की क़ीमत
मिट्टी के मोल है।
....................................................................

परिवेश : दो
--------------


ओ मां,
बचपन से तुम्हें
अपने पास देखता रहा
और फैलता गया मैं
समूचे आकाश में।
फिर रास्ते के पहाड़
राई बन गये
और मैं
राई से पहाड़।

तुमने कहा
नियति नहीं है पहले से तय।
और सचमुच
लड़ता गया मैं
अपनी तमाम वर्जनाओं से
दुश्चिंताओं के घेर से बाहर आकर
मैंने तय की अपनी नियति
और बुनता गया ढेरों सपने।

लेकिन अब भी
अकेले में अक्सर
एक आदमकद सच्चाई
दबोचती है मुझे
सवालों के कटघरे में
बींध जाते हैं
मेरे तमाम विचार
कि दूसरों के भोग का अवशेष
मैं झेलूं कब तक?
प्रश्नों की सीमा में बंधा आदमी
हमेशा आदमी नहीं रह जाता
पर तय है
कि रेगिस्तान में
मृगमरीचिका का संबल
जीवन देता है कई-कई बार।
....................................................................

परिवेश : तीन
----------------
जब सवालों से
छीजने लगता है मन
व्यवस्थाएं होने लगती हैं
उलट-पलट
धूल-गर्द और गर्म हवाओं को भी
फांकते हुए
नहीं मिल पाता है
जीने का कोई सही अर्थ
तो फैलने लगता है
अवश विद्रोह।

नींद खुलते ही
हर रोज़ देखता हूं
बिस्तर पर दर्द से लेटी मां।
रसोईघर से जूझती
बूढ़ी दादी।
और पिता के ललाट पर
परेशानियों की लकीरें।

नहीं देख पाया कभी
कि सुबह की शुरुआत हुई हो
मां की हंसी से।
इसीलिए भी
चंद लम्हें
आंखें बंद किये पड़े रहता हूं दोस्तो
कि शायद कभी
कल्पनाओं में आ जाये
पिता का हंसता चेहरा
और मां की वेदनारहित हंसी।
....................................................................

परिवेश : चार
----------------

बातें सीमित हैं
चंद पारिभाषिक शब्दों से
बताता चलता हूं
तुम्हारी पीड़ा।
कि तुम
सूने आकाश को ताकती हो सिर्फ़
कि तुम्हें कविताएं
बेमानी लगने लगी हैं
लेखों में तुम्हारी कोई रुचि नहीं रही
कि हम सब
तुम्हारी परेशानियों में
घुल रहे हैं।

पापा की पेशानी
भाई का चेहरा
और छोटी की आंखें
नहीं देख पाता अब।
सिर्फ़ चाहता हूं
कि तुम्हारी ताज़गी लौट आये
तो लिखूं एक लंबी कविता
अजनबी होते शब्दों को
फिर प्यार करूं।

ओ मां,
कैसे हो जाती हैं
स्थितियां इतनी अनियंत्रित
कि कोई सही शब्द नहीं सूझता?
कि शब्दों के बाज़ार में?
सही शब्द नहीं मिलते?
कि दिनचर्या बंध जाती है?
....................................................................

परिवेश : पांच
----------------

जीवन के संदर्भ में
अपने ख़याली दर्शन पर
कई-कई बार आत्ममुग्ध हुआ हूं मैं।

अपने ज्ञान की शेखी बघारता
न जाने कितनी बार
मैंने मौत को लताड़ा है।
स्वजन के मृत्युदंश से आहत
कई लोगों को
बड़ी आसानी से
समझाया/बहलाया/फुसलाया है।

लेकिन आज स्थितियां बदल गईं
ज़िंदगी और मौत से
रस्साकसी करते अपनी मां को देख।
जबकि जानता हूं
कि एक दिन
छोड़ जाना हैं हमें
सारा कुछ
बन जाना है इतिहास
फिर कभी कोई पलटेगा
हमारी कतरनों को
और तार-तार होकर
निकलेगी हमारी कविता।
सचमुच, कतरनों की हिफ़ाज़त के लिए
चिंतित हूं मैं।
(प्रसारित)

Thursday, February 7, 2008

युद्धरत आम आदमी


यारो, यह ग़ज़ब कैसे हो गया?
इस बार यह नदी
पूरी सूख गयी
या यकायक
पूरी नदी ही बह गयी?

मैं देख रहा हूं
हमारे पांवों तले की ज़मीन
खिसक रही है
हमारे हिस्से की रोटी
हमारी थाल से ग़ायब हो रही है
हमारी हर चीज़
जो हमें बहुत प्यारी थी
उस पर बिचौलियों ने
क़ब्ज़ा जमा लिया है।

पेट की धमनभट्ठी में
हम झुलस रहे हैं
और तिसपर हमारी अंतड़ियां
हमसे जो सवाल कर रही हैं
उनका एक भी कोई सही जवाब
नहीं है हमारे पास।

हमारे शरीर की हर ऐंठन
हमारे इर्द-गिर्द एक तिलिस्म
बुन रही है
जिसका तोड़ और जिसका हिसाब
हम ख़ुद भूलते जा रहे हैं।

हमारी थाल से
अगर रोटियां ग़ायब हो रही हैं
तो यह क़तई नहीं साबित होता
कि हमारे मलिकान
बहुत चालाक हैं।
अगर ठंड भरी सुबह में
हमारी ललाट पर
पसीने चुहचुहा रहे हैं
तो यही साबित हो रहा है
कि हमने
बेजा मेहनत की है।
जाड़े में बहता
यह पसीना
बहुत दुर्गंधित है साथी
असह्य है एयरकंडिशंड में
बैठे लोगों का होना।
हमारी हर ज़रूरत पर
पिस्सू की तरह चिपके ये लोग
बड़े सुघड़ भले दिख रहे हैं
पर इनकी असलियत
कुछ और है।
गुलाब की खेती करने वाले
ये बहरुपिये
हम सबों के बीच
मतभेद बो रहे हैं।
इसलिये अपनी तमाम चुनौतियों के बीच
थोड़ा समय निकाल यह सोचें
कि हमारी कैक्टस हुई
ज़िंदगी का राज़
कहां छुपा है।

धनिए की महक
और मकई के बाले
बेटे की तुतलाती ज़बान
और पत्नी की पनीली आंखें
ये सारा कुछ छोड़कर
हम आये थे यारो
अपने प्यारे से गांव से
सोचा था
शहर में
सपनों की बगीया लगेगी
और गांव में बेटा जवान होगा
मगर
कुपोषण के शिकार हुए
दोनों के दोनों।

यारो, बहुत सह लिया
अब चलो
हमारी ज़रूरतें
जिनके लिए मज़ाक़ हैं
अपनी करनी से
उनके चेहरे तराश दें
उन्हें बतायें
कि हम अपने पसीने से
तुम्हारी ईंटें जोड़ सकते हैं
तो हमारे पसीने में
तुम्हारे मकान
बह भी सकते हैं।

यारो,
हम युद्धरत आम आदमी हैं
अपनी ज़रूरतों को
अपनी आंखों से देखेंगे
और तमाम रणनीतियां भी
अब अपनी बनायी हुई होंगी।
पहले की ग़लती
हमें फिर नहीं दुहरानी
कि बकरियों को
बुरी निगाह से बचाने के लिए
उन्हें हम कसाईबाड़े में रख दें।

हमारे शरीर वज्र के बने हों
और हमारे इरादों में
फौलाद साफ-साफ झलके
इसके लिए ज़रूरी है
कि युद्धरत हो जाओ।

हर ख़ास को अब
आम बना देना है
ख़ास बने रहने की चाह
बहुत बड़ी कमज़ोरी है
यही से शुरू होता है
व्यवस्था के ढांचों का
ढीला पड़ते जाना।

यक़ीनन, इस लंबी यात्रा में
हमें कई घाटियों से गुज़रना है
जहां कई तीखे मोड़ हैं
लेकिन चिंता की कोई बात नहीं
सुरक्षा के सारे इंतज़ाम
कर लिये गये हैं
तुम बेख़ौफ़ बढ़े चलो।

सुबह का सूरज
अब पीली रोशनी नहीं फेंकेगा
दहकते हुए आदमी की
हां में हां मिलायेगा वह
तुम इतमीनान में रहो
कि हर सुबह अब सूरज
पहले तुम्हारी झोपड़ियों में उगेगा।

सिपाहियों की बंदूकें
घबराई हैं यह सोचकर
कि कल जब तुम
अचानक कमर कस लोगे
उनके ख़िलाफ और पूछोगे
बेवजह ढाये गये ज़ुल्म की वजह
तो क्या जवाब देंगी वे।

यारो, अब उदास होने की ज़रूरत नहीं
क्योंकि सचमुच
जीवन के हर मोर्चे पर
युद्धरत है आम आदमी।

Tuesday, February 5, 2008

कलमुंही का पत्र



प्रिय अखिल,
पहला पत्र इसलिए लिखा था कि मेरे जिंदा होने की जानकारी तुम सबों के पास हो। दूसरा पत्र लिखने की इच्छा नहीं थी। पर तुम्हारा पत्र मिलने के बाद लिखना जरूरी लगा। अपनी सफाई देने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि औरतों के बारे में सोचने का तुम्हारा तरीका बदले। साथ ही तुम यह जान सको कि तुम्हारी यह 'कलमुंही' बहन घर से क्यों भागी थी।

तब तुम सिर्फ12 साल के थे, आज 22 के हो। इन दस सालों का सच है कि मैंने दस घाट का पानी पी लिया। 27 की हो गई, पर लगता है अनुभव मेरे पास 67 से भी ज्यादा के हो गए। तुम्हारी उम्र पर ध्यान इसलिए चला गया मेरे भाई, कि तुम्हारे पत्र में 'मर्द' की बू थी। मर्द जिसे मैंने 17 की उम्र में झेला था पहली बार।

तुमने लिखा था कि मेरे नाम की चर्चा होने से ही चाचा हत्थे से उखड़ जाते हैं; उखड़ें भी क्यों नहीं, आखिर उन्होंने ही उखाड़ा था न मुझे। अखिल, मैं याद नहीं करना चाहती उस पल को... पर बुरी तरह टूट गई थी मैं उस रोज। अब तो उन्हें चाचा कहते हुए भी उबकाई आती है।

खैर, छोड़ो उस बात को। हां, तो मैं भाग कर आ गई थी दिल्ली। हर तरफ ऊंची-ऊंची, चौड़ी-चौड़ी सड़कें, तेज भागतीं गाड़ियां; इस नए तरह के शहर को देख बदहवास हो गई थी। सड़क पार करने की कोशिश में किसी गाड़ी की चपेट में आ गई। पता नहीं किसने, कैसे और कब मुझे एम्स पहुंचा दिया। दस दिनों तक भर्ती रही। सिर में चोट लगी थी। दो दिनों तक बेहोश रही। होश में आने पर लोगों ने नाम, पता-ठिकाना पूछा। मैं चुप रही। लोगों ने समझा, याददाश्त चली गई है। पहुंचा दिया निश्छल छाया के नारी निकेतन में। साल भर रही वहां। मर्दो की छाया से भी डरती थी। धीरे-धीरे सामान्य हुई। कब तक बैठी रहती नारी निकेतन में, निकलना शुरू किया। शहर में काम और भविष्य की तलाश में कई दफ्तरों के चक्कर काटे। इस भटकाव ने आंखों को अभ्यस्त बना दिया मर्दों की घूरती निगाहों को सहने का। नौकरी मिली एक प्रकाशक के पास, किताबों की प्रूफ रीडिंग करने की। लगभग 9 साल गुजर गए यहां।

धर्म-अध्यात्म, समाज-राजनीति, संबंधों की दुनिया की किताबें चाटती रही। पढ़ती रही और खूब पढ़ी। खुद-ब-खुद विचार भी पनपते रहे। सबको संजोती हुई आज अपने को मच्योर्ड महसूस करती हूं। डरावनी छायाएं अब मेरा पीछा नहीं करतीं।
घर में भी देखती थी कि औरतों को फैसला करने की इजाज़त नहीं थी। शुरू में समझती थी कि यह स्थिति सिर्फ हमारे घर में है; लेकिन अखिल, यह तो घर-घर की कहानी है। हो भी क्यों नहीं, इस समाज में तो पुरुषों का राज चलता है न। लेकिन इस समाज में मैंने अपना फैसला किया और उस पर अमल भी। फैसले करने का अपना सुख होता है।

प्रूफ रीडिंग का काम करते हुए 'प्राचीन शिव पुराण' पढ़ने का मौका मिला। उसके उमा संहिता के चौबीसवें अध्याय में औरतों को लेकर जो टिप्पणियां हैं, उन्हें पढ़कर खून खौल जाता हैं। उसका सार संक्षेप यही है कि औरतें मंदबुद्धि और नीच होती हैं। हर पाप की जड़ में औरत है। परंपरागत शिष्टाचार की मर्यादा को नहीं निबाहतीं और वे पतियों का साथ इसलिए नहीं छोड़तीं कि उन्हें कोई दूसरा मर्द घास नहीं डालता। जानते हो, इस किताब को पूरी आस्था के साथ संभाल कर रखा था कि यह पुराण है। जबसे यह चैप्टर पढ़ा, मुझे इससे और ऐसी तमाम किताबों से घृणा हो गई।

तुम्हारे पत्र से जाना कि घर के लोगों को इस 'कलमुंही' का जिंदा रहना अखर गया। 'कलमुंही' संबोधन इसीलिए न कि मैं अकेले रहती हूं, पता नहीं कितनों से मेरे संबंध बने होंगे? अपने चाचा को कहना अखिल, जरा भी आशंकित न हों। मैं बाहर रह कर बेहद सुरक्षित हूं।

ओ भाई, मुझे बताओ कि तुम मर्दों ने ऐसी धारणा क्यों पाल ली है कि अगर कोई लड़की अकेली है तो उसे आसानी से पाया जा सकता है? क्या इसलिए कि वह 'असूर्यपश्या' वाली छवि तोड़ कर घर की दहलीज से निकली; कि तुम्हें अपना वर्चस्व टूटता नजर आ रहा है; कि नई पीढ़ी ने पुरुषों की पोशाक धारण कर ली है?
जानते हो अखिल, यहां जब मैं पहली बार टी-शर्ट और जींस पहन कर निकली, बड़ी असहज थी। सकुचाई हुई, यह सोच कर कि लोगों को हास्यास्पद लग रहा होगा। कुछ वैसा ही, जैसे मुझे हनुमान जी की कोई तस्वीर मिल जाए, जिसमें वे पतलून पहने दिख रहे हों। लेकिन बता नहीं सकती कि उस रोज बसयात्रा में कितनी सहूलियत हुई। इन वर्षों में जाना कि बड़ा से बड़ा परिवर्तन जरूरत की वजह से ही होता है। सहूलियत भी जरूरत का ही एक रूप है। शेर के नख और हरिण की टांगें उनकी जरूरत के मुताबिक ही विकसित हुए हैं। स्त्री आज अगर एक नए रूप में दिख रही है, तो यह नया रूप भी जरूरतों ने ही बनाया है। 'पढि़ए गीता और बनिए सीता' जैसी सीख अब उसके लिए बेमानी होती जा रही है। आज अगर उसके नख बढ़ गए हैं, अगर इतनी आक्रामक हो गई है, तो जाहिर है कि इस समाज में अपने अस्तित्व को बचाए रखने की उसने जरूरत समझी हो।

हो सकता है, मेरी बातें तुम्हें नागवार लगें। लेकिन भाई, मुझे बताओ; तुम मर्दों की जमात जब भी स्त्रियों की आधुनिकता और परंपरा की चर्चा करती है, तो ऐसा क्यों लगता है कि चुंबक के साउथ और नॉर्थ पोल की चर्चा हो रही है? तुम्हारी बहसों में लगता है कि परंपरा और आधुनिकता दो बिल्कुल अलग चीजें हैं, प्रकृति और रूप दोनों स्तरों पर। आधुनिकता को देखने की तुम्हारी यह दृष्टि कि यह परंपरा के खिलाफ संघर्ष है - आधुनिक नहीं है मेरे भाई। मुझे लगता है कि आधुनिकता कोई नई चीज़ नहीं, बल्कि वह तो परंपरा का एक्सटेंशन है। प्रकृति और रूप दोनों स्तरों पर परिमार्जित एक्सटेंशन।
जरा बताओ, जिस वक्त नरगिस फिल्मों में काम कर रही थीं, क्या वह उस दौर के लिए आधुनिक नहीं थीं? आधुनिकता और बोल्डनेस को जो लोग मल्लिका सेहरावत के कम कपड़ों में देखते हैं, उनके लिए यह विचारणीय होगा कि क्या ब्लू फिल्मों की नायिका को अति आधुनिक मान लिया जाए? तुम इन्हें 'मॉडर्न' ख्यालों वाली लड़की की बात कहकर शायद टाल जाने की कोशिश करो। लेकिन यह सच है कि फिल्म या जीवन में किसी नायिका के मार्फत आधुनिकता को समझने के क्रम में पुरुषों की निगाह फिसल कर उनके कम कपड़ों पर अटक जाती है, जबकि हकीकत है कि कपड़े में ही आधुनिकता नहीं होती। अगर ऐसा होता, तो मदर टेरेसा, इंदिरा गांधी, कल्पना चावला को आधुनिक माना ही नहीं जाना चाहिए था।

आधुनिकता का संबंध तो दृष्टि, विचार और कृत्य से होता है। हमारी दृष्टि वक्त की नब्ज पर अपनी पकड़ रखती है, विचार हमें उसका परिमार्जित रूप दिखाते हैं और हमारे कृत्य आनेवाली पीढ़ी के लिए दृष्टि, विचार और कृत्य के लिए जगह बनाते चलते हैं। यह तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाला सिलसिला है। इसी प्रक्रिया के तहत समाज आधुनिक होता चलता है।

एक और बात, तुम मर्दों की दुनिया हमेशा औरतों को औजार की तरह क्यों इस्तेमाल करती है? उसे साध्य बनाने की बजाय साधन क्यों बनाती है, आश्रय की जगह आलंबन क्यों? कबीर की दृष्टि धर्म, प्रेम और ईश्वर को लेकर आधुनिक और तार्किक दिखती है, लेकिन स्त्रियों के मामले में वह इतने अनुदार क्यों हैं, तुम्हारी तरह? उन्होंने ही लिखा है 'नारी की झाईं पड़त अंधा होत भुजंग। कबिरा तिनकी कौन गति, जे नित नारी संग'। एक तरफ नारी के प्रति ऐसी दृष्टि और फिर परमात्मा से संबंध बनाने के लिए उन्होंने खुद को उसकी बहुरिया (स्त्री रूप) में पेश किया। कैसी है तुम्हारे मर्दों की दुनिया रे अखिल!

देख न अखिल, पिताजी ने तेरा नाम अखिल रखा था और मेरा बिंदु। उनके लिए तू संसार था, मैं तो महज बिंदु। लेकिन आज मैं वृत्त बन गई अपने में सिमटी हुई।
घर से भागने का अफसोस सिर्फ यह है कि मेरे न होने से तू स्त्रियों के मनोभावों को समझने में अपरिपक्व रह गया; तेरी दृष्टि सामंती हो गई। बड़ी दीदी होने का कोई दायित्व मैं नहीं निभा सकी। पर पता नहीं क्यों, तुझसे इतनी उम्मीद करती हूं कि स्त्रियों का सम्मान करना सीख, चाहे वह तेरी मां हो, पत्नी, बहन या फिर पड़ोसन।

तुम्हारी दीदी
बिंदु
(प्रकाशित)

समीकरण

तुमने कहा 'दुनिया'
और मुझे कसाईबाड़े की याद आई
तुमने कहा 'जनता'
और मुझे
लाचार मेमनों की याद आई।

यक़ीन मानो,
अब और कोई भी शब्द
तुम्हारे मुंह से
सुनने की तबीयत नहीं।
क्योंकि प्रजातंत्र जब हाशिये की चीज़ हो जाए
और तुम हमें
सिखाने लगो
कि दो और दो
पांच होते हैं
तो दुनिया और जनता की बात
तुम्हारे मुंह से सुनना
भद्दे मज़ाक की तरह लगती है।

यह घटिया मज़ाक
तुमने बहुत दिनों तक कर लिया
और हर बार हमने
ज़हर का घूंट पीया।
लेकिन कहते हैं न
कि जब आक्रोश की आंखें
सुलगती हैं
तो समुद्र को भी
रास्ता देना पड़ता है।
इसलिए देखो,
हम सब तहज़ीब में
परिवर्तन कर रहे हैं
भजन-कीर्तन छोड़कर
अब आग का समर्थन कर रहे हैं।

(प्रसारित)

Monday, February 4, 2008

महानगर

इस कस्बे में
समझौता नहीं होता
किसी चीज़ की
कोई सीमा नहीं।
सिर्फ़
मतलब के साथ
भटकते लोग हैं
सिपाही हैं, सलाहकार हैं
पटवारी हैं, बनवारी हैं
और हर तरफ़
ज़िंदगी
आदमी पर भारी है।

यहां
न कोई किसी का बाप है
न कोई किसी की मां
न कोई भाई है
और न कोई बहन
दरअसल,
सभी अपने सपने में
मस्त हैं
इंसानियत का खंभा
ध्वस्त है।

(प्रसारित)

Sunday, February 3, 2008

बंद घड़ी के कांटे

मेरा कमरा
जिसमें एक विशेष गंध
तैरती है
जो दूसरे कमरों में नहीं।
मुझे बेहद लगाव है
कमरे में टंगी
मोनालिसा से
ठहरी हुई गंध से

खिड़की से दिखता
आसमान का टुकड़ा
जैसे सारा यथार्थ
वहीं कहीं अटका होगा
और मैं ढूंढ़ने लगता हूं
उस टुकड़े में ज़िंदगी।
एक संपूर्ण ज़िंदगी
सुख-दुख, पाप-पुण्य
आत्मा-परमात्मा...
इन सब से भी परे कुछ

उस टुकड़े में
कई तस्वीरें बनती हैं-मिटती हैं
मेरे सोच के साथ-साथ।
तभी एक चित्र दिखता है,
मैं पहचानने की कोशिश करता हूं,
वहां मेरे कमरे की गंध है,
बंद पड़ी घड़ी है,
ठहरा हुआ समय है,
समूचा मेरा कमरा है,
कमरे में मैं हूं,
और मुझे देखकर
मुस्कुराती हुई मोनालिसा है।

(प्रसारित/प्रकाशित)