जिरह पढ़ें, आप अपनी लिपि में (Read JIRAH in your own script)

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Tuesday, October 27, 2009

अश्लील कौन : मकबूल फिदा हुसैन, बिहारी लाल, प्रेमचंद या कि हम


मैं
ने कई बार कई जगहों पर पढ़ा और सुना है कि मकबूल फिदा हुसैन ने हिंदू देवी-देवताओं की कई अश्लील पेंटिंग बनाई थी। इसी कड़ी में सरस्वती की तस्वीर भी थी। गर एम. एफ. हुसैन का विरोध इसी मुद्दे पर हिंदू कर रहे हैं तो मुझे लगता है कि मकबूल फिदा हुसैन वाकई हिंदू जनमानस को बहुत करीब से समझते हैं। क्योंकि सिर्फ इसी बात को मुद्दा बना कर विरोध करने वालों के भीतर बसी सरस्वती वाकई नंगी है, वरना उन्हें यह समझ होती कि चंद लकीरों से उकेरी गई कोई नंगी तस्वीर मां सरस्वती की कैसे हो सकती है?

मां सरस्वती के जिस रूप को हम और आप बचपन से जानते रहे हैं वह तो धवल वस्त्रों में लिपटी हुई हंसवाहिनी और वीणावादिनी वाली मुद्रा है। उनके चेहरे पर गरिमामयी मुस्कान है, ओज है...और पता नहीं क्या-क्या। यानी, उक्त गुणों में से कोई भी एक गुण जिस तस्वीर में हमें न दिखे, वह मां सरस्वती की तस्वीर हो नहीं सकती, भले ही कोई लाख चीख-चीख कर क्यों न बोले। क्या आप किसी ऐसी तस्वीर को मां सरस्वती की तस्वीर के रूप में स्वीकार करना चाहेंगे जो हंस के बदले कौवे पर बैठी हो? जाहिर है नहीं। तो फिर बगैर कपड़े वाली तस्वीर में आपको मां सरस्वती कहां से दिख गई?

कहना यह चाहता हूं कि भले ही हुसैन ने उस तस्वीर पर लिख दिया हो सरस्वती, पर वह आपकी 'मां सरस्वती' नहीं है। फर्ज कीजिए सरस्वती की जगह उसने लाली लिखा होता, तब भी क्या आप इसी तरह विऱोध करते? या फिर काली लिखा होता तो क्या करते? क्योंकि यह तो कड़वा सच है कि कपड़ों के संग तो काली की कोई तस्वीर अभी तक नहीं दिखी। हां, हर तस्वीर में कलाकार यह कमाल जरूर दिखाता है कि मुंडमालाओं से उनके अंग विशेष लगभग ढक जाते हैं।

आपके इस विरोध के क्रम में आपको एक घाटा यह जरूर हुआ कि आप हुसैन की एक लाजवाब पेंटिंग को निहारने से चूक गए। उनके सधे ब्रश स्ट्रोक्स और कलर कॉम्बिनेशन की तारीफ करने का अवसर आपके हाथ से फिसल गया। इतना ही नहीं विरोध के दौरान आपने अपनी एनर्जी जाया की। यही एनर्जी अगर बचा कर रखी जाये, अपने आक्रोश को अगर आप तरतीब देना सीख जायें तो शायद इस समाज में हर दिन उतर रहे किसी काली, किसी दुर्गा, किसी सरस्वती, किसी लक्ष्मी, किसी राधा, किसी सीता, किसी द्रौपदी के वस्त्र की रक्षा कर सकेंगे।

इस तरह, उनकी बनाई तस्वीर अश्लील नहीं थी। मकबूल जैसे कलाकार को हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई जैसी श्रेणी में बांटना, मुस्लिम होने के नाम पर उनका विरोध करना और उनकी बनाई किसी न्यूड स्त्री की तस्वीर में मां सरस्वती का रूप देखना वाकई अश्लील है।

शब्दों से भी तस्वीर बनाई जाती है। रीतिकाल के कवियों ने नायक और नायिका के कार्य-व्यापारों का वर्णन पूरे मनोयोग से किया है। उनकी रचनाएं हिंदी साहित्य के कोर्स का हिस्सा तो हैं ही, हिंदी साहित्य के इतिहास में उनका स्थान बहुत ऊंचा भी है। पर इस देश में यह भी मुमकिन है कि अचानक कोई स्वयंभू आलोचक पैदा हो जाये और कहे कि ये रीतिकालीन कवि तो बेहद कमबख्त थे। बड़ा ही अश्लील साहित्य रचते थे।

ये लोकतांत्रिक देश है। धूमिल ने लिखा था - मेरे देश का प्रजातंत्र / मालगोदाम में लटकी बाल्टी की तरह है / जिस पर लिखा होता है आग / और भरा होता है / बालू और पानी / ...। तो इस देश के लोकतंत्र ने धूमिल की इन पंक्तियों को खारिज करते हुए बताया कि बालू और पानी नहीं भरा होता है, हममें आग ही भरा है। यह लीजिए जिस प्रेमचंद को आप सम्मान देते हैं, उसे तो लिखने का भी शऊर नहीं था। जाति-विशेष के लिए असम्मानजनक टिप्पणी लिखने का दुस्साहस किया था उसने, सो देखिए उसकी किताबों का हश्र। कैसे धू-धू करके आग में जल रही हैं।

मित्रो, बताएं आप कि प्रेमचंद का लिखना अश्लील था या उनकी किताबों को जलाना या फिर जलती किताबों को देख कर भी हमारा चुप बैठना?

Wednesday, October 7, 2009

मुंहबोली बहन से रिश्ता अवैध है?

आज से नवभारत टाइम्स डॉट कॉम ने अपनी वेबसाइट पर ब्लॉग की शुरुआत कर दी है। कुल 12 ब्लॉगर्स हैं फिलहाल। जाहिर है यह संख्या बढ़ेगी। सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक या कह लें कि तमाम तरह के मुद्दों पर वहां चर्चा होगी। मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स डॉट कॉम पर आया है।

-अनुराग अन्वेषी



लां की पत्नी फलां के साथ भाग गई या फलां के पति का फलां से अवैध संबंध है - ऐसी बातें हम और आप अक्सर सुनते आए हैं। कई बार तो इसे अफवाह कहकर हम लोग लाइटली लेते हैं, पर कई बार ऐसी बातों पर हुआ रिऐक्शन सारी हदें पार कर जाता है। कुछ की जान जाती है, कुछ घायल होते हैं। बाद में पूरा प्रकरण जब मीडिया में आता है तो उसे अवैध संबंधों के खिलाफ उपजे आक्रोश की परिणति के तौर पर लोग स्वीकार कर लेते हैं।

पर अक्सर मेरे मन में एक सवाल कुलबुलाता है कि क्या कोई संबंध अवैध भी हो सकता है। दरअसल, संबंध तो अच्छे और बुरे होते हैं। अवैध तो उसे हमारा स्टेटमेंट करार देता है। यानी, जिन रिश्तों का हम पुरजोर विरोध करना चाहते हैं, जिन रिश्तों का बनना और बने रहना हमें कुबूल नहीं होता उनके लिए विशेषण के तौर पर अवैध शब्द का इस्तेमाल हम कर लेते हैं। अपनी नफरत और नापसंद को व्यक्त करने वाला कोई शब्द तलाशने की बजाए हम उस रिश्ते को खारिज करने की कोशिश करते हैं। उसे सामाजिक संदर्भ में इलीगल घोषित कर देते हैं। गौर से देखें तो 'अवैध' शब्द हमारे नफरत के एक्स्प्रेशन को नहीं रखता, बल्कि हमारे द्वारा जारी किए गए फतवे को रखता है। यह अलग बात है कि सामाजिक ठेकेदारों द्वारा घोषित इस फतवे को हम फतवे की तरह नहीं समझते बल्कि उसका सामाजिक संदर्भ तलाशते हुए जस्टिफाई करते हैं। क्योंकि अवैध करार देने के फतवे के बारे में 'निठल्ला चिंतन' करने का वक्त भेड़चाल में शामिल लोगों के पास बेहद कम होता है।

ऐसे शब्द का इस्तेमाल करने वालों का विरोध जताने के लिए क्या मुझे यह कहना चाहिए कि अवैध शब्द का इस्तेमाल वे अवैध तरीके से कर रहे हैं? मेरी निगाह में इस शब्द का इस्तेमाल मुझे इस संदर्भ में नहीं करना चाहिए।

क्या किसी ऐसे रिश्ते को हमें 'वैध' कहना चाहिए जिसमें पति-पत्नी दोनों साथ तो रहते हों, पर जब भी साथ चलते हों एक-दूसरे का पैर कुचलते हों, लड़खड़ा कर बार-बार गिरते हों और हर बार घायल होकर फिर खड़े होते हों, साथ चलने के लिए नहीं, लड़ने के लिए? या उस रिश्ते को 'वैध' कहना चाहिए जहां परस्पर दो अजनबियों के बीच पहचान बनती है, फिर वह बढ़ती है, एक-दूसरे का सुख-दुख समझती है, साझा करती है, तमाम दुख और तकलीफ के बीच साझे सुख की तलाश करती है?

जब रिश्तों की बात चल निकली है तो यह जरूर बताएं कि रिश्तों को 'अवैध' घोषित करने का आपका पैमाना क्या है? क्या वंश परंपरा के खांचे में जिन रिश्तों को देखते-सुनते आए हैं, या समाज के पारंपरिक ढांचे में जिन रिश्तों को जीते आए हैं, सिर्फ वही 'वैध' हैं? उससे इतर सारे रिश्ते 'अवैध'? वाकई, अगर आपका पैमाना यही है, तो कहना चाहूंगा कि अपने भीतर की इस जड़ता को जितनी जल्द हो सके तोड़ डालें। बंधु! रिश्तों की दुनिया बहुत बड़ी और बहुत जटिल है। इसका बहाव आपके छोटे-मोटे फतवे नहीं रोक सकते। किसी रिश्ते को यूं खारिज भी नहीं कर सकते आप।

क्या अब तक किसी ऐसे बाप के खिलाफ आवाज बुलंद करने की कोशिश की है आपने, जिसने 'वैध' बेटी के साथ बलात्कार किया? या किसी ऐसे 'वैध' भाई, मामा, चाचा... की गर्दन पकड़ी है आपने, जिसने अपनी करतूत से अपनी 'वैध' बहन, भगिनी, भतीजी... को डर और घृणा के जंगल में पहुंचा दिया? क्या ऐसे नामाकूलों के रिश्ते वाकई 'वैध' हैं? क्या ऐसे लोग रिश्ते का एक कतरा भी पहचानते हैं? आए दिन वंश परंपरा और सामाजिक खांचे को तोड़ने वाली खबरें आपके 'वैध रिश्तों' की पोल खोलती हैं। फिर भी आप वैध और अवैध के पचड़े से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।

इस 'अवैध' का पैमाना तलाशने में एक संदेह और सिर उठा रहा है। दो अलग-अलग वर्ण, समुदाय या देश के लड़का और लड़की एक-दूसरे के परिचित हो जाएं और एक-दूसरे को भाई-बहन मानें, तो आपकी निगाह में यह भी 'अवैध रिश्ता' होगा। होना ही चाहिए, क्योंकि इन दोनों के रिश्ते में न तो कोई एक वंश परंपरा है, न कोई समाज परंपरा। तब तो फिर इस अर्थ में तमाम मुंहबोली बहनों और मुंहबोले भाइयों के रिश्ते 'अवैध' हैं?

उम्मीद है यहां पर आपका जवाब 'ना' होगा। और इस 'ना' के पीछे तर्क होगा कि भाई-बहन के रिश्ते पवित्र होते हैं, इस रिश्ते में सेक्स की कोई जगह नहीं होती। यानी, ले-देकर फिर आप अपने उसी मर्दवादी नजरिए के साथ खड़े हो गए, जहां वैध-अवैध रिश्तों को परिभाषित कर रहा है गैर स्त्री-पुरुष से बना शारीरिक संबंध।

जरा सोचें, एक स्त्री या पुरुष का शारीरिक संबंध दूसरे पुरुष या स्त्री से क्यों बन जाता है। इसकी पड़ताल के लिए हमें सामाजिक ढांचे की ओर लौटना होगा। इस समाज में हर शख्स एक साथ कई-कई भूमिकाओं में जीता है। स्त्री है, तो वह किसी की मां होगी, किसी की बेटी, किसी की बहू, किसी की सास, किसी की पत्नी, किसी की बहन, किसी की दोस्त किसी की दुश्मन भी....। इसी तरह पुरुष भी कई भूमिकाओं को जीता है। कई भूमिकाओं की जरूरत क्यों पड़ जाती है? इसीलिए तो कि मन और तन की तमाम परतों की अलग-अलग जरूरतें हैं। इन जरूरतों को किसी एक भूमिका में रहते हुए किसी एक चरित्र के साथ पूरा नहीं किया जा सकता।

जीवन में सेक्स की पूर्ति उतनी ही अनिवार्य है जितना जिंदा रहने के लिए सांस लेना। पैदा हुआ बच्चा जब मां का दूध पीता है तो उसका एक हाथ अपनी मां की छाती पर होता है। मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक, ऐसा करने से बच्चे के भीतर सहज रूप से (पर अचेतन में) बह रही सेक्स की भूख शांत होती है। बच्चे के अंगूठा पीने को मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि ऐसा होने की वजह 'कामक्षुधा की पूर्ति' है।

जब यह काम तत्व हमारे जीवन में बचपन से रचा-बसा है, तो इसकी आधी-अधूरी पूर्ति किसी भी शख्स को भटका सकती है। आपका तर्क हो सकता है कि ऐसा नहीं है वर्ना भटकने वालों की भीड़ दिखती रहती। मैं भी सहमत हूं आपकी बात से। पर यह भी देखें कि भटकने वालों की बड़ी जमात तो नहीं है इस देश में, पर न भटकने की वजह से तरह-तरह के अवसादों से घिरे लोगों की जमात तो है ही अपने सामने। हां, भटकने वालों का परसेंटेज कम है। पर इन 'कम लोगों' के भटक जाने का दोषी आखिर है कौन? जाहिर तौर पर उनका पार्टनर। अगर उसने अपने बेचैन और अतृप्त पार्टनर का ख्याल रखा होता तो भटकने की नौबत तो नहीं ही आती, आपको अवैध का फतवा भी जारी नहीं करना पड़ता। यहां पर एक सवाल और - फिर भटकने वाला दोषी कैसे हुआ? जाहिर है यहां मैं अब भी आपके खिलाफ और 'अवैध' संबंध वालों के पक्ष में खड़ा हूं। यह बहुत सहज-स्वाभाविक धारा है, इसे समझने की कोशिश करें, फतवे जारी कर रोकने की नहीं।

चलते-चलते बचपन में सुनी एक बात आपसे शेयर करता चलूं। एक छींक का मतलब होता है - शुभ। दूसरी छींक का अशुभ, तीसरी छींक घोर अशुभ। चौथी-पांचवीं-छठी-सातवीं-आठवीं छींक लगातार आए तो शुभ-अशुभ के फेर से निकल आएं और तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें क्योंकि ये जुकाम होने के संकेत हैं। कहने का मतलब यह कि किसी के एक-दो से अगर किसी के शारीरिक संबंध बन भी गए हों, तो उसे नजरअंदाज करें, पर अगर ऐसे संबंधों की संख्या तीन, चार, पांच, दस होने लगे, तो मेरी गुजारिश है; कृपया मेरे तर्कों को नजरअंदाज कर मान लें कि यह गंभीर केमिकल लोचा है, जिसे हम व्यभीचार के रूप में जानते हैं।