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Monday, March 31, 2008

पाश की निगाह में भगत सिंह





"जिस दिन उसे फांसी लगी उसकी कोठरी से उसी दिन लेनिन की एक किताब बरामद हुई थी जिसका एक पन्ना मोड़ा हुआ था देश की जवानी को उसके आखरी दिन के मोड़े हुए पन्ने से आगे बढ़ना है।"
-पाश

भगत सिंह और पाश की शहादत की तारीख़ एक ही है पर वर्ष अलग। वैसे, पंजाबी कवि पाश अपने जीवनकाल में क्रांतिकारी देशभक्त भगत सिंह को बेहद पसंद करते रहे होंगे, इसमें शक़ नहीं। 23 मार्च 1982 को पाश ने भगत सिंह को कुछ यूं याद किया था :

उसकी शहादत के बाद बाक़ी लोग
किसी दृश्य की तरह बचे
ताज़ा मुंदी पलकें देश में सिमटती जा रही झाकी की
देश सारा बचा रहा बाक़ी
उसके चले जाने के बाद
अपने भीतर खुलती खिड़की में
लोगों की आवाज़ें जम गईं
उसकी शहादत के बाद
देश की सबसे बड़ी पार्टी के लोगों ने
अपने चिहरे से आंसू नहीं, नाक पोंछी
गला साफ़ कर बोलने की
बोलते ही जाने की मशक की
उससे संबंधित अपनी उस शहादत के बाद
लोगों के घरों में, उनके तकियों में छिपे हुए
कपड़े की महक की तरह बिखर गया
शहीद होने की घड़ी में वह अकेला था ईश्वर की तरह
लेकिन ईश्वर की तरह वह निस्तेज न था।

Friday, March 28, 2008

पाश का 'लोहा'

आप लोहे की कार का आनंद लेते हो
मेरे पास लोहे की बंदूक है
मैंने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हो
लोहा जब पिघलता है
तो भाप नहीं निकलती
जब कुठाली उठाने वालों के दिल से
भाप निकलती है
तो पिघल जाता है
पिघले हुए लोहे को
किसी भी आकार में
ढाला जा सकता है

कुठाली में देश की तकदीर ढली होती है
यह मेरी बंदूक
आपके बैंकों के सेफ;
और पहाड़ों को उल्टाने वाली मशीनें,
सब लोहे के हैं।
शहर से उजाड़ तक हर फ़र्क
बहिन से वेश्या तक हर अहसास
मालिक से मुलाजिम तक हर रिश्ता,
बिल से कानून तक हर सफ़र,
शोषणतंत्र से इंकलाब तक हर इतिहास,
जंगल, कोठरियों व झोपड़ियों से पूछताछ तक हर मुक़ाम
सब लोहे के हैं।

लोहे ने बड़ी देर इंतज़ार किया है
कि लोहे पर निर्भर लोग
लोहे की पंत्तियां खाकर
ख़ुदकुशी करना छोड़ दें
मशीनों में फंसकर फूस की तरह उड़नेवाले
लावारिसों की बीवियां
लोहे की कुर्सियों पर बैठे वारिसों के पास
कपड़े तक भी ख़ुद उतारने के लिए मजबूर न हों।

लेकिन आख़िर लोहे को
पिस्तौलों, बंदूकों और बमों की
शक्ल लेनी पड़ी है
आप लोहे की चमक में चुंधियाकर
अपनी बेटी को बीवी समझ सकते हैं
(लेकिन) मैं लोहे की आंख से
दोस्तों के मुखौटे पहने दुश्मन
भी पहचान सकता हूं
क्योंकि मैंने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हो।

अनुवाद - चमनलाल

Tuesday, March 25, 2008

पाश को मार कर भी नहीं मार सके आतंकवादी

यह हैं पाश। अवतार सिंह संधू 'पाश'। आज से बीस साल पहले (23 मार्च 1988 को) खालिस्तानी आतंकवादियों ने इनकी हत्या कर दी थी। इस पंजाबी कवि का अपराध (?) यही था कि यह इस जंगलतंत्र के जाल में फंसी सारी चिड़ियों को लू-शुन की तरह समझाना चाह रहे थे। चिड़ियों को भी इनकी बात समझ आने लगी थी। और वे एकजुट होकर बंदूकवाले हाथों पर हमला करने ही वाली थीं कि किसिम-किसिम के चिड़ियों का हितैषी मारा गया। उस वक्त पाश महज 37 बरस के थे।

वैसे, यह बेहद साफ़ है कि कोई भी किसी की हत्या तभी करता है, जब उसे सामनेवाले से अपने अस्तित्व पर संकट नज़र आता है। यानी, कोई भी हत्या डर का परिणाम है। पाश की क़लम से डरे हुए आतंकवादियों ने उनकी हत्या कर दी। पाश बेशक ज़िंदादिल इनसान थे। उनकी जिंदादिली की पहचान हैं उनकी बोलती-बतियाती कविताएं। पाश की कविताएं महज कविताएं नहीं हैं, बल्कि विचार हैं। उनका साहित्य पूरी दृष्टि है। ज़िंदगी को क़रीब से देखने का तरीका है। कुल मिलाकर वह ऐसी दूरबीन है जिससे आप दोस्तों की खाल में छुपे दुश्मनों को भी पहचान सकते हैं।
पाश की पहली कविता 1967 में छपी थी। इसी वक़्त वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े और बाद में नागा रेड्डी गुट से भी। पर ख़ुद को हिंसा से हमेशा दूर रखा। 1970 में वह जेल में थे और वहीं से उन्होंने कविता संकलन 'लौह कथा' छपने के लिए भेजा। इस संकलन में उनकी कुल 36 कविताएं थीं। इस संकलन के आने के साथ ही अवतार सिंह संधू 'पाश' पंजाबी कवियों में 'लाल तारा' बन गये। 1971 में पाश जेल से छूटे। इस बीच जेल में ही उन्होंने ढेर सारी कविताएं लिखीं और हस्तलिखित पत्रिका 'हाक' का संपादन किया। 1974 में पाश के 'उड्डदे बाजां मगर', 1978 में 'साडे समियां विच' और 1988 में 'लड़ांगे साथी' कविता संकलन छपकर आये। अपने 21 वर्षों की काव्य-यात्रा में पाश ने कविता के पुराने पड़ रहे कई प्रतिमानों को तोड़ा और अपने लिए एक नयी शैली तलाशी। संभवतः अपने इसी परंपराभंजक तेवर के कारण पाश ने लिखा है :

तुम्हें पता नहीं
मैं शायरी में किस तरह जाना जाता हूं
जैसे किसी उत्तेजित मुजरे में
कोई आवारा कुत्ता आ जाये
तुम्हें पता नहीं
मैं कविता के पास कैसे जाता हूं
कोई ग्रामीण यौवना घिस चुके फैशन का नया सूट पहने
जैसे चकराई हुई शहर की दुकानों पर चढ़ती है।

पाश की कविताओं में विषय-वैविध्य भरपूर है, किंतु उनके केंद्रीय भाव हमेशा एक हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह रही है कि पाश ने जिंदगी को बहुत करीब से देखा। तहजीब की आड़ में छूरे के इस्तेमाल को उन्होंने हमेशा दुत्कारा, साथ ही मानवता और उसकी सच्चाई को उन्होंने गहरे आत्मसात किया। पाश के लिए ये पंक्तियां लिखते हुए उनकी कविता 'प्रतिबद्धता' याद आती है, जिसका करारा सच प्रतिबद्धता के नाम पर लिखी ढेर सारी कविताओं को मुंह चिढ़ाता है :

हम चाहते हैं अपनी हथेली पर कोई इस तरह का सच
जैसे गुड़ की चाशनी में कण होता है
जैसे हुक्के में निकोटिन होती है
जैसे मिलन के समय महबूब के होठों पर
कोई मलाई जैसी चीज होती है।

गुड़ की चाशनी, हुक्के की निकोटिन और महबूब के होठों की मलाई - ये बिंब पाश जैसे कवि को ही सूझ सकते हैं। यह अलग बात है कि कविता के नासमझ आलोचक इसे बेमेल बिंबों की अंतर्योजना कह कर खारिज करना चाहें। पाश ने खेतों-खलिहानों में दौड़ते-गाते, बोलते बतियाते हुए हाथों की भूमिका भी सीखी :

हाथ अगर हों तो
जोड़ने के लिए ही नहीं होते
न दुश्मन के सामने खड़े करने के लिए ही होते हैं
यह गर्दनें मरोड़ने के लिए भी होते हैं
हाथ अगर हों तो
'हीर' के हाथों से 'चूरी' पकड़ने के लिए ही नहीं होते
'सैदे' की बारात रोकने के लिए भी होते हैं
'कैदो' की कमर तोड़ने के लिए भी होते हैं
हाथ श्रम करने के लिए ही नहीं होते
लुटेरे हाथों को तोड़ने के लिए भी होते हैं।

इस अंदाज में अपनी बात वही कवि रख सकता है जिसे पता हो कि वह कहां खड़ा है और सामनेवाला कितने पानी में है :

जा, तू शिकायत के काबिल होकर आ
अभी तो मेरी हर शिकायत से
तेरा कद बहुत छोटा है।

मनुष्य और उसके सपने, उसकी ज़िंदादिली और इन सबसे भी पहले अपने आसपास की चीजों के प्रति उसकी सजगता पाश को बहुत प्यारी थी :

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
लोभ और गद्दारी की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाये पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी सी चुप्पी में जकड़े जाना बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ना बुरा तो है
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
पर सबसे ख़तरनाक नहीं होता।
सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का, सब कुछ सहन कर लेना
घर से निकलना काम पर और काम से घर लौट जाना
सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना...।

पाश के लिए कविता प्रेम-पत्र नहीं है और जीवन का अर्थ शारीरिक और भौतिक सुख भर नहीं। बल्कि इन सबसे परे पाश की दृष्टि एक ऐसे कोने पर टिकती है, जिसे आज के भौतिकतावादी समाज ने नकारने की कोशिश की है - वह है उसकी आज़ादी के सपने। आज़ादी सिर्फ तीन थके रंगों का नाम नहीं और देश का मतलब भौगोलिक सीमाओं में बंधा क्षेत्र विशेष नहीं। आज़ादी शिद्दत से महसूसने की चीज़ है और देश, जिसकी नब्ज भूखी जनता है, उसके भीतर भी एक दिल धड़कता है। इसलिए पाश हमेशा इसी सर्वहारा के पक्ष में खड़े दिखते हैं।

वैसे तो पाश की राजनीतिक गतिविधियां काफी तेज रही हैं। विभिन्न पार्टियों से जुड़कर आमजन के लिए लड़ना उनका धर्म रहा है। पर उनकी मुख्य पहचान किसी राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में नहीं बनी, बल्कि एक क्रांतिकारी और जुझारू कवि के रूप में बनी। पार्टियों के बदलते स्टैंड और वहां पैठी अवसरवादिता पाश को कचोटती थी। यह पाश की खीज ही थी जो हमारे समय में पूरे चरम पर दिखती है :

यह शर्मनाक हादसा हमारे साथ ही होना था
कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्द ने
बन जाना था सिंहासन की खड़ाऊं
मार्क्स का सिंह जैसा सिर
दिल्ली के भूलभुलैयों में मिमियाता फिरता
हमें ही देखना था
मेरे यारो, यह कुफ्र हमारे समयों में होना था...


पाश ने अपने पहले काव्य संग्रह का नाम रखा था - लौहकथा। इस नाम को सार्थक करनेवाली उनकी कविता है लोहा। कवि ने इस कविता में लोहे को इस क़दर पेश किया है कि समाज के दोनों वर्ग सामने खड़े दिखते हैं। एक के पास लोहे की कार है तो दूसरे के पास लोहे की कुदाल। कुदाल लिये हुए हाथ आक्रोश से भरे हैं, जबकि कारवाले की आंखों में पैसे का मद है। लेकिन इन दोनों में पाश को जो अर्थपूर्ण अंतर दिखता है, वह यह है कि :

आप लोहे की चमक में चुंधियाकर
अपनी बेटी को बीवी समझ सकते हैं
लेकिन) मैं लोहे की आंख से
दोस्तों के मुखौटे पहने दुश्मन
भी पहचान सकता हूं
क्योंकि मैंने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हो।

पाश की कविताओं से गुज़रते हुए एक खास बात यह लगती है कि उनकी कविता की बगल से गुज़रना पाठकों के लिए मुश्किल है। इन कविताओं की बुनावट ऐसी है, भाव ऐसे हैं कि पाठक बाध्य होकर इनके बीच से गुज़रते हैं और जहां कविता ख़त्म होती है, वहां आशा की एक नई रोशनी के साथ पाठक खड़े होते हैं। यानी, तमाम खिलाफ़ हवाओं के बीच भी कवि का भरोसा इतना मुखर है, उसका यकीन इतना गहरा है कि वह पाठक को युयुत्सु तो बनाता ही है, उसकी जिजीविषा को बल भी देता है।

मैं किसी सफ़ेदपोश कुर्सी का बेटा नहीं
बल्कि इस अभागे देश की भावी को गढ़ते
धूल में लथपथ हज़ारों चेहरों में से एक हूं
मेरे माथे पर बहती पसीने की धारों से
मेरे देश की कोई भी नदी बेहद छोटी है।
किसी भी धर्म का कोई ग्रंथ
मेरे जख्मी होठों की चुप से अधिक पवित्र नहीं है।
तू जिस झंडे को एड़ियां जोड़कर देता है सलामी
हम लुटे हुओं के दर्द का इतिहास
उसके तीन रंगों से ज्यादा गाढ़ा है
और हमारी रूह का हर एक जख़्म
उसके बीच वाले चक्र से बहुत बड़ा है
मेरे दोस्त, मैं मसला पड़ा भी
तेरे कीलों वाले बूटों तले
माउंट एवरेस्ट से बहुत ऊंचा हूं
मेरे बारे में ग़लत बताया तेरे कायर अफसरों ने
कि मैं इस राज्य का सबसे खतरनाक महादुश्मन हूं
अभी तो मैंने दुश्मनी की शुरुआत भी नहीं की
अभी तो हार जाता हूं मैं
घर की मुश्किलों के आगे
अभी मैं कर्म के गड्ढे
कलम से आट लेता हूं
अभी मैं कर्मियों और किसानों के बीच
छटपटाती कड़ी हूं
अभी तो मेरा दाहिना हाथ तू भी
मुझसे बेगाना फिरता है।
अभी मैंने उस्तरे नाइयों के
खंज़रों में बदलने हैं
अभी राजों की करंडियों पर
मैंने लिखनी है वार चंडी की।

उन्होंने अपनी लंबी कविता 'पुलिस के सिपाही से' में स्पष्ट कहा है :

मैं जिस दिन रंग सातों जोड़कर
इंद्रधनुष बना
मेरा कोई भी वार दुश्मनों पर
कभी ख़ाली नहीं जाएगा।
तब फिर झंडीवाले कार के
बदबू भरे थूक के छींटे
मेरी ज़िंदगी के घाव भरे मुंह पर
चमकेंगे...


और इसके लिए बेहद ज़रूरी है :

मैं उस रोशनी के बुर्जी तक
अकेला पहुंच नहीं सकता
तुम्हारी भी जरूरत है
तुम्हें भी वहां पहुंचना पड़ेगा...


1974 में प्रकाशित 'उड्डदे बाजां मगर' में पाश की निगाह बेहद पैनी हो गयी है और शब्द उतने ही मारक। इसी संकलन की कविता है - हम लड़ेंगे साथी ।

हम लड़ेंगे साथी उदास मौसम से
हम लड़ेंगे साथी गुलाम इच्छाओं से
हम चुनेंगे साथी ज़िंदगी के सपने


पाश ने देश के प्रति अपनी कोमल भावना का इज़हार पहले काव्य संग्रह की पहली कविता में किया है

भारत
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहां कहीं भी इस्तेमाल होता है
बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं...

पर पाश इस भारत को किसी सामंत पुत्र का भारत नहीं मानते। वह मानते हैं कि भारत वंचक पुत्रों का देश है। और भारत को अपने लिए सम्मान मानने वाले पाश कहते हैं :

इस शब्द के अर्थ
किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं
वरन खेतों में दायर है
जहां अनाज उगता है
जहां सेंध लगती है...


नवंबर '84 के सिख विरोधी दंगों से सात्विक क्रोध में भर कर पाश ने 'बेदखली के लिए विनयपत्र' जैसी रचना भी की। इस कविता में मारे गये निर्दोष सिखों के प्रति गहरी सहानुभूति थी, तो दूसरी तरफ सत्ता की गलत नीतियों के प्रति विद्रोह भी।

मैंने उम्रभर उसके खिलाफ़ सोचा और लिखा है
अगर उसके अफ़सोस में पूरा देश ही शामिल है
तो इस देश से मेरा नाम खारिज कर दें ...
... इसका जो भी नाम है - गुंडों की सल्तनत का
मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूं
मैं उस पायलट की चालाक आंखों में
चुभता हुआ भारत हूं
हां, मैं भारत हूं चुभता हुआ उसकी आंखों में
अगर उसका अपना कोई खानदानी भारत है
तो मेरा नाम उसमें से अभी खारिज कर दो।

पाश की हत्या ने उनकी एक कविता की तरफ लोगों का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया। 'मैं अब विदा लेता हूं' शीर्षक इस कविता में पाश ने अपनी सामाजिक भूमिका का उल्लेख करते हुए मृत्यु से 10 साल पहले ही अपनी अंतिम परिणति का ज़िक्र किया था :

...तुम यह सब भूल जाना मेरे दोस्त
सिवाय इसके
कि मुझे जीने की बहुत लालसा थी
कि मैं गले तक ज़िंदगी में डूबना चाहता था
मेरे हिस्से का भी जी लेना मेरे दोस्त
मेरे भी हिस्से का जी लेना।

संभवतः यही एक ऐसी कविता थी, जिसमें पाश अपने व्यक्तिगत जीवन से संबोधित थे और अपने आसपास के निकटस्थों के लिए लिखा था। सचमुच, उनके भीतर जिंदगी को उसके गले तक जीने की बलवती इच्छा थी।

Thursday, March 20, 2008

बैटलफ़ील्ड फॉर लीडरशिप ऑन गूगल

फागुन के नशे में BLOG का कोई दूसरा अर्थ नहीं दिख रहा साथियो। हां, कुछ रोज़ पहले तक यह मुझे और मेरे जैसे कई साथियों को ब्यूटिफुल लिटरेचर ऑन गूगल का अर्थ भी देता रहा है। ऐसा नहीं कि यह अर्थ ख़त्म हो गया है। पर फिलहाल, जब होली सिर चढ़कर बोलने को तैयार हो तो मन का थोड़ा भटक जाना स्वाभाविक है। यही सोचकर भटकने दिया इस मन को और एक बीत चुके प्रकरण पर थोड़ी चुटकी ली है। क्षमायाचना सहित पेश है 'बुरा न मानो होली है' : इलेक्ट्रॉनिक कलम हाथ में थाम लेने से कोई अगुवा या मठाधीश नहीं बन जाता। स्वयंभू मठाधीश तो हम हो सकते हैं, पर स्वीकृत नहीं। इसके लिए नायकों वाले गुण भी दिखने चाहिए।
कलम से गर्दन नहीं टूटती। यह अहसास होने के बाद अपनी करनी पर गर्दन झुक जरूर जाती है। और एक सच तो यह कि हम जो कुछ भी लिखते हैं, बोलते हैं वही हमारा चेहरा दूसरों के सामने बनाता है/बिगाड़ता है। किसी ने लिखा है :

मैं आदमी को शक्ल-ओ-सूरत से नहीं
शब्दों से जानता हूं
क्योंकि सामने जब शब्द होते हैं
तो आदमी नहीं, आदमी के ईमान बोलते हैं।

और अंत में फिर वही धारणा...

Tuesday, March 18, 2008

इच्छाओं का होलिका दहन

मेरे साथियों पर होली का खुमार छाया है और मेरी हालत यह है कि होली के नाम से ही बुखार छूटने लगता है, पसीने आने लगते हैं। इस महानगर में रम और रंग की होली देखी है। दरअसल रम में पैसे का खर्च ज्यादा है और रंग छुड़ाने में वक्त का। इससे बेहतर तो हमारे गांव में था। न रम का झंझट न रंग का। चढ़ाओ ठर्रा और हो जाओ मस्त। इस देसी शराब के नशे के बाद तो होली के दिन गांव की नालियां रंगों की बाल्टी बन जाती थीं। पूरी आत्मीयता के साथ उसे शरीर पर पोतो और फिर नहाने के वक्त भी कोई झंझट नहीं। देह पर एक बाल्टी पानी मारो और सारा कीचड़ धुल गया। पर यहां तो हालत यह हो जाती है कि रगड़-रगड़ कर चमड़ी छील डालो पर रंग दिखता ही रह जाता है।

वैसे, मुझे आज भी याद है जब मैं होली के मौके पर पहली बार ससुराल जा रहा था। कितनी नाक रगड़ने के बाद बॉस ने छुट्टी दी थी। उस कमबख्त का दिया सारा दर्द भूल गया मैं अपनी उस ससुराल यात्रा में। बस स्टैंड पर ही साले साहब मुझे रिसीव करने पहुंच गये थे। बिल्कुल नई चमचमाती बैलगाड़ी लेकर आए थे वह। मैं बैलगाड़ी के पास पहुंचा, साले साहब मेरा सामान लाद ही रहे थे कि दोनों बैलों ने सिर हिलाकर और पूंछ को चंवर की तरह डुलाकर मेरा अभिवादन किया। पता नहीं इन बैलों को कैसे ट्रेंड कर देते हैं गांव के लोग। जिसने मुझे कभी देखा नहीं था, उसने भी पहचान लिया। सिर्फ पहचाना ही नहीं मुझे देख सिर भी हिलाया, चंवर भी डुलाया। मैं भावविभोर हो गया। शहर के बैल याद आए। वहां इतने कीमती स्कूल। पर वहां पढ़कर भी इंसान की औलाद इंसान नहीं बन पाई, बैल ही रह गई। वे बैल न किसी को पहचानते हैं न किसी के सामने नतमस्तक होते हैं। चचा दिखें या दिखें चाची, होठ में दबा सिगरेट न छुपाने की जरूरत समझते हैं न ही छुपाते हैं। बस मुंह से धुएं के गोल-गोल छल्ले निकालते रहते हैं। यही सब याद कर मन ही मन मैं कोस रहा था उन सबों को जो अपनी कार से मेरे चेहरे पर धूल उड़ाते और चिढ़ाते निकल जाते थे। तभी साले ने टोका 'कहां खो गये जीजा जी। गांव नजीके है अब।'

मेरी तंद्रा टूटी। देखा, बच्चों का झुंड हमारी बैलगाड़ी की ओर दौड़ा चला आ रहा है। हवा में हाथ लहराते वे चिल्ला रहे हैं 'दिलवाले जी आ गए, दिलवाले जी आ गए।' साले ने बताया कि ये चिल्ला रहे हैं कि दिल्ली वाले जीजा जी आ गये। फिर कहने लगा 'अरे जीजा जी, बड़ा क्रेज है हियां आपका। बड़, बूढ़, जवान, चेंगना-मेंगना सभे आपसे होली खेलने का पिलान बना लिए हैं।'

यह सुनकर मैं घबराया। मुझे अपने मोहल्ले की होली याद आ गई। होली के बाद सड़कों पर फटे कपड़े बिखरे रहते थे। हर होली में लगभग नंगा होकर ही मैं घर पहुंचता था। पर यह तो ससुराल है, यहां अगर ऐसा-वैसा कुछ हो गया तो? मैंने अपने को संयत कर कहा, 'साले साहब, मैं तो पूरी शालीनता के साथ होली खेलूंगा।'

उसने कहा, 'हां जीजा जी, जरूरे खेलिएगा। आखिर नता साली है आपकी।' फिर थोड़ा चौंकते हुए उसने पूछ 'पर जरा इ तो बताइए कि नता को आप कइसे जानते हैं। उ भी छटपटाई है होली खेलने के लिए। बहुत सयानी है, पूरा रंग देगी आपको। अच्छा, जरूर दीदी ने बताया होगा उसके बारे में। उसकी पक्की सहेली है उ।' चौंकने की बारी मेरी थी, 'किसकी बात कर रहे हैं आप?' उसने कहा 'अरे उसी नता के बारे में। अभिए न आप कहें कि मैं तो सिर्फ साली नता के साथ होली खेलूंगा।' मैंने साफ किया 'अरे भाई, मैंने किसी साली नता के बारे में नहीं कहा, मैंने तो कहा शालीनता के साथ होली खेलूंगा।' 'ओहो.. होहो....जीजा जी, का करें हम थोड़ा कनफूजिया गए', उसने कहा। इतने में हमारी बैलगाड़ी गांव में पहुंच गई। सड़क के कूबड़ पर बैल अपनी मस्त चाल में चल रहे थे। बच्चों की टोली ने मेरे विजिटिंग कार्ड का काम किया। गांव में पहले ही खबर हो गई थी कि 'दिलवाले जी' आ गए हैं। कुछ महिलाएं अपने दामाद को देखने के लिए अपने-अपने घर के दरवाजे की ओट में खड़ी दिखीं, तो कुछ सिर पर पल्लू डाले मुंह में साड़ी का एक किनारा दबाए घर के बाहर निकल आई थीं। मैं नई-नवेली दुलहन की तरह संकोच से भरा था। पर महानगर की अपनी आदत से बाज नहीं आ सका। कनखियों से उन्हें निहारता रहा। सब आपस में कानाफूसी कर रही थीं। चुहल उनके चेहरे पर साफ झलक रहा था। मैं मन ही मन रोमांचित हो रहा था। इतनी प्यारी-प्यारी और ढेर सारी सासें। सालियों की संख्या इनसे दोगुनी तो जरूर होगी - यह सोच ही रहा था कि आवाज आई 'परनाम जीजा जी'। साले ने बताया 'झुनकी है'। फिर उसने बैलगाड़ी पर ही परिचय देना शुरू कर दिया 'ऊ है पायल...और ऊ... हुंआ जो दूर में खड़ी है.... ऊ पांचों के बीच में... ऊ है सुगनी, अरे सुगनी देख तेरे जीजा जी को हम ले आए।' सलज्ज मुस्कान के साथ उधर से अभिवादन मिला। पर बाकियों में से किसी एक ने कहा 'हां रे जोधन, पकड़ के रखना। कल पता चलेगा जीज्जा जी को...अइसा पटकेंगे कुंइयां वाले कीच में की यादे रहेगा।' 'अरे, अइसा काहे बोलती है। सहर वाले जीज्जा जी हैं। देखती नई, केतना गोर हैं। कीच लग गया तो करिया हो जाएंगे' यह दूसरी ने कहा। तीसरी ने कहा 'चिंता न करना जीज्जा जी। आप करिया हो जाएंगे, तो हम अपने हाथों से बढ़िया से नहला कर साफ कर देंगे, फिर अइसने ही सहर वाला दिखने लगेंगे आप।' इनकी बात सुन के सचमुच सिहर गया मैं। जोधन ने डांटा, 'चल हट हियां से। बेसी बकर-बकर मत कर। अभिये से लक्षन मत दिखा अपन।' लड़कियों की इस ठिठोली के बीच से हमारी बैलगाड़ी गुजर गई। बैल ने एक बार उन्हें घूरकर देखा। इस घूरने को साले साहब ने भी देख लिया। दांत निपोर कर बोले, 'अभी घूर कर देख रहे हो जीज्जा जी, कल तो मटियामेट कर देंगी ये आपको। इनके मुंह मत लगना।' मैं सकपकाया। खैर, मैं ससुराल के दरवाजे पर खड़ा था। बच्चों का झुंड मुझे किसी दूसरे ग्रह से आए प्राणी की तरह समझ रहा था। सालियों की संख्या न पूछें जनाब। लग रहा था गांव की तमाम लड़कियां यहां इकट्ठा हो आई हैं। गांव के मेरे तमाम सास-ससुर वहां मौजूद थे। यह सब देखकर मेरा मिजाज बेसुरा होने लगा। एक तो सफर की थकान थी, दूसरा, बैलगाड़ी की सवारी और जब अब आराम करने का वक्त मिलना चाहिए, आधे घंटे से महिलाओं ने नौटंकी कर रखी है। कभी अक्षत छींटती हैं तो कभी गोबर से गाल सेंकती हैं। ऊपर से सालियों का कमेंट सो अलग 'हां जीजा जी, अभी तो गोबर से पुजा रहे हैं, कल गोबरे में सानेंगे आपको।'
बहरहाल, मुझे कमरे में ले जाया गया। बच्चों को तो बाहर से ही हुड़का दिया गया। पर सालियों ने पीछा नहीं छोड़ा था। बीवी इस भीड़ में कहीं दिख नहीं रही थी। सालियों की चिलपों को तो बर्दाश्त भी किया जा सकता था। पर मेरा साला कुछ ज्यादा ही हुलस गया था। उसे बर्दाश्त करना मुश्किल हो रहा था। तभी उसने सवाल दागा 'और जीजा जी, शहर में कैसा कट रहा था?' चिढ़ा हुआ तो था ही मैं। टका सा जवाब दिया 'कटना क्या है। बीवी महीने भर से मायके में थी, वहां मैं शांति और सुकून के साथ रह रहा था।' इसी बीच सासू मां आईं और फिर गईं। इस तीखे जवाब और तेवर के बाद सालियां भी खिसक गईं और साला भी। थोड़ी देर बाद लगा जैसे ससुराल में कोहराम मच गया है। सासू जी पछाड़ें खा के रो रही हैं। कुछ लोग समझाने में लगे हैं। मेरी समझ में कुछ नहीं आया। तभी बीवी के दर्शन हुए। वह समझा रही थी अपनी मां को। 'अरे, हुआं उ अकेले रहते हैं। शांति और सुकून नाम की कोई लड़की नहीं रहती।' अब समझा मैं कि मैंने जो कहा था कि शांति और सुकून के साथ रहता हूं, उसे उन्होंने किस अर्थ में ले लिया था।

खैर, दोपहर और शाम तक फिर कोई नया हादसा नहीं हुआ। अगजा जल चुका था। मेरा खाना आ चुका था। तरह-तरह की डिश थी। सब चीज मेरी पसंद के थे सिवाए कढ़ी-बरी के। मैंने मन ही मन सोचा कि सबसे पहले इसी घटिया आइटम को खत्म किया जाए, फिर बाकी चीजें प्रेम से खाई जाएंगी। यह सोच कर मैंने कढ़ी-बरी वाला कटोरा उठाया और एक ही सांस में सारा गटक गया। राह का रोड़ा खत्म हो चुका था, अब प्रेम से खाना खाने की बारी थी। पर ये क्या, मेरे कटोरा रखते ही फिर उसे तुरंत भर दिया गया यह सोचकर कि मेहमान को बहुत पसंद है। मन खट्टा हो चुका था। बीवी को मैं कोस रहा था। अब तक कहीं दिख ही नहीं रही है। किसी से पूछने में संकोच हो रहा था। कम से कम वह होती यहां तो इस कढ़ी-बरी को तो दुबारा खत्म नहीं करना पड़ता। मन ही मन सोचा, आने दो कमरे में रात को। तब हर चीज का बदला लूंगा।

रात को साले साहब मुझे कमरे में लेकर आए। मैं महीने भर की जुदाई खत्म होने की घड़ी का इंतजार कर रहा था। तभी साले साहब ने कहा 'बस जीजा जी, पानी पी कर आ रहे हैं। फिर साथे सुतेंगे।' मैं झल्लाकर रह गया। अब रात की बात क्या बताऊं। साले के साथ ही सोना पड़ा। बातचीत में साले साहब ने बताया कि हमारे यहां होली के दिन पूजा होती है उसके बाद ही यहां बेटी-दामाद साथ सोते हैं। मैं ऐसी परंपरा को कोसते-कोसते सो गया।

सुबह आंख भी ठीक से नहीं खुली थी कि हुड़दंगियों का शोर सुनाई पड़ा...सा र..र सा र र सेव सिंघाड़ा, तेरा बाप माखनचोर मेरा खेल बिगाड़ा, जोगीरा सा र र...मेरी नींद टूटी। मुझे लगा बगल में साले साहब सोए हैं। पर यह क्या? मैं तो अपने बड़े भइया के साथ सो रहा हूं। अभी जब उनकी शादी नहीं हुई है, तो मेरी बारी भला कहां से आ गई। इसी बीच फिर बाहर से शोर सुनाई पड़ा....जोगी रा सा र..र...र..।

Thursday, March 13, 2008

सपनों के साथ जीता हुआ आदमी

एक आदमी
जब सपनों में जीता है
गोबर को भी गणेश मान लेता है
वह नहीं जानता
कि शहर में
भेड़ियों की भी जमात है
वह देखता है सिर्फ़
आकाश में उड़ रहे
सफ़ेद कबूतरों को
मैदान में बेख़ौफ भाग रही गायों को।

सपनों में जीता हुआ आदमी
अपनी हर छोटी-सी जीत को
एवरेस्ट की ऊंचाई मान लेता है
उसकी नीली गहरी आंखों में
डल झीलें तैरा करती हैं
उन झीलों में
कई-कई नाव हुआ करते हैं
उन नावों में
सुंदर जोड़े अक्सर घूमते होते हैं
उन जोड़ों में
सपनों में जीते हुए आदमी की
धड़कन धड़कती होती है।

लेकिन जब
सपनों की दुनिया की मौत होती है
आदमी तिलमिला जाता है
नहीं सूझता है उसे कुछ भी
ख़ुद से अपरिचित हो जाता है
अपनी सारी दुनिया से
ख़ुद को काट लेता है
सपनों की दुनिया की मौत होती है जब
आदमी तिलमिला जाता है।

Tuesday, March 11, 2008

टूटती चट्टान की चीख

कल, जब मैं
जीना नहीं चाहता था
तब मिली थी तुम
और जगाई थी
तुमने ही मुझमें
जीने की इच्छा

आज, जब मैं
जीना चाहता हूं
दर्द
पीना चाहता हूं
तो
मुझे मेरे कल को
याद दिलाते लोग
तोड़ देना चाहते हैं
और मैं उन्हें
मोड़ देना चाहता हूं
ऐसे में तुम कहां हो?

मैं कल ही
उस पहाड़ी पर
बैठे-बैठे देख रहा था
एक चट्टान को तोड़ते
कई हाथों को
चट्टान/मैं
जो शायद
यही सोच रहा था
कभी तो थकेंगे
ये तोड़ते हाथ
पर शाम के ढलते-ढलते
चट्टान मजबूर हो गयी
टेक दिये अपने घुटने
हथौड़ों ने तोड़ दिया
उस चट्टान को
और फिर
उस काली भयावह रात को
आग के चारों ओर
नाचते हुए
मजदूरों ने जश्न मनाया
जब पत्थर
पहाड़ी ढलानों से
लुढ़कने लगे थे।

और अब
जब मैं फिर
घुटने टेकने की
तैयारी कर रहा हूं
तो मुझमें
उमंग भरनेवाली तुम
कहां हो? कहां हो? कहां हो?

Monday, March 10, 2008

बोये जाते हैं बेटे

नंदकिशोर हटवाल जी की यह कविता मुझे पढ़वाई थी मेरे साथी मञ्जुल ने। उस वक्त के बाद मैंने न जाने कितने लोगों को और कई-कई बार यह कविता सुनाई और पढ़वाई। हटवाल जी को मैं निजी तौर पर नहीं जानता। उनके बारे में मेरे पास कोई जानकारी नहीं। सचमुच यह मेरा छोटापन है कि जिस कविता से इतना लगाव हो, उसके रचनाकार के बारे में आप न जानें। पर उन्हें मैं उनकी इस अद्भुत रचना के लिए हृदय से धन्यवाद देता हूं।


बोये जाते हैं बेटे
और उग आती हैं बेटियां

खाद-पानी बेटों में
और लहलहाती हैं बेटियां

एवरेस्ट की ऊंचाइयों तक ठेले जाते हैं बेटे
और चढ़ आती हैं बेटियां

कई बार गिरते हैं बेटे
और संभल जाती हैं बेटियां

भविष्य का स्वप्न दिखाते बेटे
यथार्थ दिखाती बेटियां

रुलाते हैं बेटे
और रोती हैं बेटियां

जीवन तो बेटों का है
और मारी जाती हैं बेटियां

- नंदकिशोर हटवाल

Sunday, March 9, 2008

होली से पहले भाई के नाम एक पाती


फाग के महीने में
मन के रंग उड़ गये हैं
बेलौस हुए हैं मौसम
आस्था के रंग सड़ गये हैं

गांव में एक सड़क बनी है
सरपंच और ठीकेदार में तनी है
रमुआ का लड़का बहुत गुनी है
इलाज के अभाव में मां
जली है, भुनी है


अजब है हाल
उठता रहा सवाल
मन में मलाल
तो कैसे खेलें
फिर लोग गुलाल
बच्चे हैं बेहाल
सारे चेहरे लाल-लाल
जीना हुआ मुहाल


ख़ैर, तुम अपनी सुनाओ
सब सही है, सलामत है
या फिर,
कोई कयामत है?


वैसे, जानता हूं
सब जगह होती है
एक ही कहानी
लोगों की ज़बानी
उनकी परेशानी
नौकरी करो या करो किसानी
जब भी सोचोगे सुंदर भविष्य
तो मरती है नानी

पढ़े हुए बच्चे, नौकरी करते बच्चे
अपना परिवार, सुंदर-सी बीवी
घर में हो रेडियो-टीवी...
ये सब सपने हैं
थोड़े-बहुत अपने हैं

साहब ने खाया पपीता
मन तुम्हारा क्यों हुआ तीखा
अपनी-अपनी क़िस्मत है
मेरी आंखें विस्मित हैं
साहब खाते हैं दूध-मलाई
इलाज के बग़ैर
मरती है सुंदर की भौजाई।
यह कहां का इंसाफ है?
पुण्य है यह या कि पाप है?
यहां तो समय पर गधा भी बाप है।


शेष सब कुशल है
फिर भी मन विकल है
संसार है समंदर
तो जीवन है नाव
क्या करूं?

ढूंढ़ रहा हूं अपनी ठांव।
(प्रसारित)

Monday, March 3, 2008

एक मरा फोटोग्राफर, जो ज़िंदा हो गया था


यह तस्वीर केविन कार्टर नाम के एक साउथ अफ्रीकन फोटोजर्नलिस्ट ने खींची थी। बात मार्च 1993 की है। तब सूडान अकाल से जूझ रहा था। पत्रकारों की एक टीम में शामिल कार्टर उस समय सूडान गये थे। उन्होंने भूख से लड़ते सूडानियों को देखा और जुट गये कुछ ख़ास की तलाश में। उनकी तलाश पूरी हुई वहां के अयोड गांव में। उन्होंने देखा एक सूडानी बच्ची को। भूख से बेहाल हुए लोगों की मदद के लिए बने फीडिंग सेंटर की ओर वह ख़ुद को किसी तरह घिसट ले जा रही थी। अपनी इस कोशिश में वह अशक्त बच्ची बुरी तरह थक चुकी थी। सो वह रुक कर अपनी ताक़त फिर जुटाने लगी। कार्टर ने देखा कि उसके आसपास गिद्ध मंडरा रहे हैं। वह वहां रुक कर इंतज़ार करने लगे अपने संभावित दुर्लभ तस्वीर के लिए किसी ख़ास सिक्वेंस का। शायद उन्हें इंतज़ार था कि गिद्ध या तो बच्ची पर हमला करे या फिर अपने पंख फैलाये ताकि शिकार की एक जीवंत तस्वीर वह ले सकें। उन्होंने उस ख़ास दृश्य के लिए तक़रीबन 20 मिनट तक इंतज़ार किया। पर बात पूरी नहीं बनते देख उन्होंने अंत के इंतज़ार में बैठे गिद्ध और बच्ची की तस्वीर खींच ली और चलते बने।

पर यह तस्वीर नायाब बन गयी। द न्यू यॉर्क टाइम्स ने 26 मार्च 1993 के अपने अंक में इसे छापा, इस कैप्शन के साथ कि इस तस्वीर में फोटोग्राफर भी एक गिद्ध है।
जाहिर है, तस्वीर का लोगों के मन पर गहरा असर हुआ। कई-कई लोगों ने अखबार के दफ्तर में फोन कर बच्ची के बारे में जानना चाहा। सब के सवाल एक से थे कि बच्ची बची या नहीं। उस बच्ची का आखिरकार क्या हुआ। पर इन सवालों का कोई सटीक जवाब अखबार के पास नहीं था। पर फोन इतने ज़्यादा लोगों के आये कि अखबार को स्पेशल एडिटर्स नोट छापना पड़ा। उन्होंने उस नोट में लोगों को बताया कि बच्ची में इतनी ताक़त बची थी कि वह उस गिद्ध से दूर चली जाये। पर आख़िरकार उस बच्ची का क्या हुआ, यह नहीं पता।

इन सारी बातों के लगभग एक साल बाद। न्यू यॉर्क टाइम्स के पिक्चर एडिटर नैन्सी ब्रूस्की ने 2 अप्रैल 1994 के दिन कॉर्टर को फोन कर सूचित किया कि उसकी इस नायाब तस्वीर ने उसे फीचर फोटोग्राफी के लिए पुलित्जर प्राइज़ दिला दिया है। 23 मई 1994 के दिन कार्टर को कोलंबिया यूनिवर्सिटी के लॉ मेमोरियल लाइब्रेरी में पुरस्कार से नवाज़ा गया।

सम्मान समारोह के लगभग दो महीने बाद कॉर्टर ने खुदकुशी कर ली। मरने के कुछ रोज़ पहले उन्होंने अपने दोस्तों के सामने कुबूल किया था कि वह उस बच्ची की मदद करना चाहते थे। पर उस समय सूडान गये उनके दल को बीमारी के डर से आगाह किया गया था कि वे लोग अकाल के शिकार बने लोगों के शरीर को न छूएं।

कार्टर ने 27 मई 1994 को खुदकुशी की थी। उसने स्यूसाइड नोट में लिखा था :
"I am depressed ... without phone ... money for rent ... money for child support ... money for debts ... money!!! ... I am haunted by the vivid memories of killings & corpses & anger & pain ... of starving or wounded children, of trigger-happy madmen, often police, or killer executioners...I have gone to join Ken if I am that lucky. "

जिस तस्वीर की वजह से कार्टर को पुलित्जर अवॉर्ड मिला था, उसी तस्वीर की आलोचना ने उनकी चेतना को झकझोर कर रख दिया। उस तस्वीर से उन्हें इतनी पीड़ा हुई कि वह उससे उबर नहीं सके। हताशा के भंवर में वह डूबते चले गये। इस निराशा की नीम पर उनके अजीज़ साथी केन ऑस्टरब्रोक की मौत ने चढ़े करैले का काम किया। केन की मौत अप्रत्याशित थी। वह 18 अप्रैल 1994 को टोकोजा में भड़के दंगे को कवर करने गये थे। उसी दंगे में वह मारे गये। कुल मिलाकर इन दोनों सदमों ने उन्हें मौत के रास्ते पर ले जाकर पटक दिया। कार्टर को जीवित हालत में आखिरी बार केन की विधवा मोनिका ने देखा था।

आइए, आपको कुछ और 'जीवंत' तस्वीरें दिखाता हूं। ये सारी तस्वीरें आप पहले भी देख चुके होंगे। और देखा होगा तो भूल नहीं सकते। ये तस्वीरें भी कुछ वैसे फोटोग्राफरों ने खींची होंगी, जो अपने प्रफेशन के लिए पूरी तरह कमीटेड रहे होंगे।


ऐसे पांव अंगद के पांव नहीं, जिसे आप हिला नहीं सकते।
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आप आपस में हाथ मिलाकर तो देखें। ऐसे हाथ बड़ी आसानी से बांह के साथ उखड़ जाएंगे।
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ये तस्वीरें हैं 24 नवंबर 2007 को जल रहे असम की। इन आदिवासी औरतों को गुवाहाटी में मर्दों ने पीटा। मर्दों ने तस्वीरें उतारीं। मर्दों ने सारा कुछ घटते देखा। नामर्द घर में घुसे रहे। बचाने के लिए कोई हितैषी सामने नहीं आया। यहां पुलिसवाले भी थे, लेकिन संख्या में कम। शायद इसलिए उनमें हिम्मत नहीं हुई इस नंगी भीड़ का सामना करने की।
ज़रा सोचें।
भीड़ के मुकाबले संख्या में कम होने की वजह से पुलिस बेबस थी। उस शहर में सारे के सारे दंगाई नहीं थे। दंगाइयों से ज़्यादा बड़ी संख्या मूकदर्शकों की थी। अगर इन मूकदर्शकों के भीतर की आत्मा बोल जाती, तो सचमुच दंगाइयों की खाट खड़ी हो जाती।

ज़रा एक बार और सोचें।
- जो फोटोग्राफर वहां मौजूद थे और अपने प्रफेशन के लिए कमिटेड होकर तस्वीरें उतारते रहे बगैर दंगाइयों से डरे। अगर भीड़ की चपेट में उनकी मां, बहन, पत्नी, प्रेमिका, बेटी... कोई होती, तो भी क्या वे अपने प्रफेशन के लिए इतना ही कमीटेड होकर महज फोटो खींचते रहते?
- जो पुलिसवाले कम संख्या में होने का रोना रो रहे हैं, या वहां होते हुए भी न होने की बात कर रहे हैं अगर उनके घर की कोई महिला इस भीड़ में फंसी होती, तो क्या वहां अपने न होने की बात कह उससे नज़र मिला सकते थे वे?
- जो महज लोग मूकदर्शक बने रहे, अगर उनके घर का कोई इस तरह ज़लील होता रहता, तब भी क्या उनकी आत्मा सोई रहती?

कार्टर तो ख़ैर जीवित इंसान निकला, इसलिए उसे अपने किये का पछतावा रहा। मैं यह नहीं कहता कि ज़िदा होने के बाद उसने जो किया बहुत बढ़िया किया। बेशक उसने जो किया उसे पलायन ही कहेंगे। पर मर कर उसने अपने ज़िंदा होने का परिचय तो दिया।

गुवाहाटी के वारदात को महीनों बीत गये। पर कोई ऐसा सामने नहीं आया जिसने दंगाइयों को पहचानने का दावा किया हो, या खुद के दंगाई होने की बात कही हो। दरअसल, ये सब के सब मरे लोग हैं। अपने में मस्त। आत्मरति के शिकार। आत्ममुग्ध लोग। ऐसे में प्रियदर्शन की कविता 'अहंकारी धनुर्धर' की याद आती है :

सिर्फ़ चिड़िया की आंख देखते हैं अहंकारी धनुर्धर
आंख के भीतर बसी हुई दुनिया नहीं देखते
नहीं देखते विशाल भरा-पूरा पेड़
नहीं देखते अपने ही वजन से झुकी हुई डाली
नहीं देखते पत्ते जिनके बीच छुपा होता है चिड़िया का घोंसला
नहीं देखते कि वह कितनी मेहनत से बीन-चुन कर लाए गए तिनकों से बना है
नहीं देखते उसके छोटे-छोटे अंडे
जिनके भीतर चहचहाहटों की कई स्निग्ध मासूम संभावनाएं
मातृत्व के ऊष्ण परों के नीचे
सिंक रही होती हैं
वे देखते हैं सिर्फ़ चिड़िया
जो उनकी निगाह में महज एक निशाना होती है
अपनी खिंची हुई प्रत्यंचा और अपने तने हुए तीर
और चिड़िया के बीच
महज उनकी अंधी महत्त्वाकांक्षा होती है
जो नहीं देखती पेड़, डाली, घोंसला, अंडे
जो नहीं देखती चिड़िया की सिहरती हुई देह
जो नहीं देखती उसकी आंख के भीतर नई उड़ानों की अंकुरित होती संभावनाएं
वह नहीं देखती यह सब
क्योंकि उसे पता है कि देखेगी
तो चूक जाएगा वह निशाना
जो उनके वर्षों से अर्जित अभ्यास और कौशल के चरम की तरह आएगा
जो उन्हें इस लायक बनाएगा
कि जीत सकें जीवन का महाभारत
दरअसल यह देखने की योग्यता नहीं है
न देखने का कौशल है
जिसकी शिक्षा देते हैं
अंधे धृतराष्ट्रों की नौकरी बजा रहे बूढ़े द्रोण
ताकि अठारह अक्षौहिणी सेनाएं अठारह दिनों तक
लड़ सकें कुरुक्षेत्र में
और एक महाकाव्य रचा जा सके
जिसमें भले कोई न जीत सके
लेकिन चिड़िया को मरना हो।

Saturday, March 1, 2008

विद्रोह की धुन

अब मत कहो : मत।
इस जंग खाई व्यवस्था से
सचमुच अब है
जंग की ज़रूरत।

ठीक है।
देख लो, समझ लो
और लो परख।
नहीं कोई बहुत हड़बड़ी।
नहीं करनी तुरंत।
पर जब बीत जाए मौसम
और बदल जाए वक़्त,
फिर कुछ नहीं हो सकता
भले हो लो तुम
कितना भी सख्त।

हां मेरे भाई,
यही है सचाई
कि खुशियों के पल में
डूबे रहे लोग
और किसी को
मेरी याद नहीं आई।
अब सब करते हैं
मेरी बड़ाई।

यही तो है असली लड़ाई।
कि दो और दो होते हैं चार
तुमने जाना
पर नहीं की तुमने
तीन-पांच करने की पढ़ाई।
अब आ बैठे हो उन्हीं के बीच।
तलवारें उन्होंने ली हैं खींच।
बारी है तुम्हारी
जबड़े लो भींच
तान लो मुट्ठी
गर्म है भट्ठी
झोंक दो सारी ऊर्जा
मत सोचो
कि रहोगे दिल्ली
या भेजे जाओगे खुर्जा।